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________________ 5 10 5 10 २१८ णिक्खवण- वेल्ल - संपत्तएहि तव लच्छिए णं सइँ सहरसेण सह- जाय-विमल - णाणत्तएण पडिबुद्ध भव्व लेसहिँ परेहिँ णिग्वाइ कम्म-पय डिउ तवेण भासेविणु पुणु सिद्धि उवाउ संबोहि भव्व जीव हूँ जिणेस इ-भणि सुररिसि गय गेहि जाम गुरु-भत्ति-विउ साणंदकाउ पुजिउ विहिणा भयवंतु तेहिँ सधैँ णिग्गउ णयणाणंदिरासु वायसंडु णामेण एवि फलिहमय- सिलायले वइसरेवि विष्फुरियाहरणइँ परिहरेवि हणमा दसमी दिणम्मि विरवि छट्ठ दिक्खिउ जिनिंदु पंचमुट्ठि केस हूँ जिणासु मणि-भाय करेवि सुरेसरेण खीराकुवारि णिवेसियाइँ तं पणवेष्पिणु गय णिहिल देव तख मणपज्जव णाणु तासु अवरहि दिणे जिणु मज्झन्न -यालि कूलउरि दयालंकरिय-चित्तु Jain Education International agमाणचरिउ १९ वजय घर - पुर- परिवारणेहिं । पेसिय दुई संगम - कएण । जुत्तहो तुह मुणिय-जयत्तएण | किह कर संबोणु सुरेहि । उपइव केवल तक्खणेण । णिण्णा सिय-भीसण-भवसहाउ । भव वास विहीयइँ सुद्धलेस । सरह संपत्त तुरंत ताम | १९. १. D. णे । २०. १. D. J. V. २. D. उ घन्ता – पुणु रयणमय गयणयले गय ससिपह सिवियहि चडिवि जिणु । चल्लिउ पुरहो सुर-मणहरहो जण वेढि चुव-भुव-रिणु ॥ १८९ ॥ वि विसुद्ध मणु सुर- णिकाउ । अहिसिंचवि मणि-मय-भूसणेहि । जिणु सत्त पयाई समंदिरासु । [ ९.१९.१ घत्ता—णिउ तहो पुरहो मोहिय-सुरहो णामेँ कूल भणिज्जइ । अणुवय-सहि संसय रहिउ जो पाढयहि पढिज्जइ ॥ १९०॥ २० जाणहो जिणु - सामिउ उत्तरेवि । yoवामुहेण सिद्धइँ सरेवि । सुह-रिउ तिण-मणि-समु मणु करेवि । अत्थइरि - सिहरि पत्तइ इणम्मि । हरिसिउ सुरवइणरवइ-फणिंदु | तणु कंति - पराजय-कंचणासु । सयमेव संमरिय जिणेसरेण । अमयासणगणहिँ पसंसिया हूँ । णिय-णिय णिवासे विरवि सेव । पण सह रिद्धि जिणासु । दस - दिसि पसरिय रवि - किरण - जालि | सम्मइ पट्ट भोयण-निमित्तु । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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