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________________ ९. १८.१२] हिन्दी अनुवाद २१७ __ घता-इन्द्रकी आज्ञासे धनदने बिना किसी विकल्पके समस्त भवोंको जला डालनेवाले जिनेन्द्रके पदोंमें [निर्मल ] उन आभूषणोंको समर्पित कर दिया ॥१८६।। वर्धमान शीघ्र ही 'सन्मति' एवं 'महावीर' हो गये __ शुक्ल पक्षमें जिस प्रकार चन्द्रमा वर्धनशील रहता है उसी प्रकार वे जिनवर भी भव्यमनोरथोंके साथ सुखपूर्वक बढ़ने लगे। विजय एवं संजय नामक चारण मुनियोंका उन जिनेश्वरके दर्शन मात्रसे ही (तात्त्विक ) सन्देह दूर हो गया अतः उन्होंने अगले दिन ही उन त्रिजगदीश्वर जिनेश्वरका 'सन्मति' यह नामकरण कर दिया। अन्य किसी एक दिन वे सन्मति वर्धमान अन्य बालकोंके साथ वक्षारोहणका खेल खेल रहे थे। उसी समय उन्हें अपने साथी बालकोंसे दूर हुआ देखकर संगम नामक देवने उन्हें सन्त्रस्त करने हेतु स्वयं ही विक्रिया ऋद्धि धारण की तथा दीपावलिके समान प्रज्वलित सहस्र फणावलियोंवाले भुजंगका वेश धारण कर उस वटमूलको घेर लिया। उस भुजंगको देखकर अन्य बालक तो वेगपूर्वक कूद पड़े और भयभीत होकर जहाँ-तहाँ भाग गये। किन्तु सम्मान प्राप्त वे वर्धमान लीलापूर्वक ही उस फणिनाथके सिरपर अपने पैर जमाकर निःशंक भावसे उस वट-वृक्षसे उतरे, तब १० उस संगमदेवने निर्भय जानकर हर्षित मनसे उन परमेश्वर जिनवरको अपना ( वास्तविक ) स्वरूप दिखाया एवं स्वर्ण कलशके निर्मल जलोंसे अभिषेक कर आभरणोंसे सम्मानित किया और उनका नाम 'महावीर' रख दिया, जिसे समस्त त्रिभुवनके लोगोंने तत्काल ही जान लिया। पत्ता-निष्कपट वे परम जिन महावीर जब अपनी सौन्दर्य-श्रीसे बालकोंके साथ रम रहे थे और विद्याधरों, मनुष्यों एवं नागदेवोंके मनोंका अपहरण कर रहे थे॥१८७।। १५ १८ तीस वर्षके भरे यौवनमें ही महावीरको वैराग्य हो गया। लौकान्तिक देवोंने उन्हें प्रतिबोधित किया प्रियकारिणीके उस पुत्र महावीर-वर्धमानने कतिपय वर्षों के बाद अनुक्रमसे शैशवकाल छोड़ा और नवयौवनरूपी मनोहर श्रीका आलिंगन किया। अर्थात् वे युवावस्थाको प्राप्त हुए। उनका शरीर जन्मकालसे ही निःस्वेदत्व आदि दस (अतिशय ) गुणोंसे विभूषित तथा कनेरपुष्पके वर्णके समान सुन्दर एवं सात हाथ ( ऊँचा ) था। क्रोधरूपी शिखि (-अग्नि ) को शमन करनेके लिए ( वारि-) जलके समान तथा भवोंको नाश करनेवाले वर्धमान देवोपनीत भोगोंको भोग रहे और ( इस प्रकार ) कामबाणको जीत लेनेवाले उन प्रभुकी आयुके जब ३० वर्ष नि गये, तब उसी बीचमें किसी निमित्तको देखकर ( उन्होंने ) शरीरभोगोंकी क्षण-भंगुरताको समझ लिया । नय-नीतिवान् उन जिनेन्द्रनाथने अवधिज्ञानसे अपने पूर्व-भवों तथा तत्सम्बन्धी विपत्तियोंको परिपाटीका विचार किया। जब उन्हें इन्द्रिय-विषयोंमें वितृप्ति हो रही थी कि उसी समय नाना प्रकारको सुखकारी मणि-किरणोंसे नभस्तलमें इन्द्रधनुषकी शोभा करनेवाले मुकुटधारी लौकान्तिक देव वहाँ आ पहुंचे। घत्ता-देवगणोंने उनके पद-युगलमें विनयपूर्वक नमस्कार कर स्तुति प्रकाशित की। निर्दोष मनवाले तथा कामबाणका दलन करनेवाले गगनस्थित उन देवोंने उन महावीरको (इस प्रकार) प्रतिबोधित किया-॥१८८॥ २८ www.jainelibrary.org १० Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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