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________________ ९.२०.१४] हिन्दी अनुवाद २१९ लौकान्तिक देवों द्वारा प्रतिबोध पाते हो महावीरने गृहत्याग कर दिया "हे भव्य, अब निष्क्रमण वेला आ गयी है। घर, पुर एवं परिवारको छोड़िए । तपोलक्ष्मीने समागम करनेकी इच्छासे हर्षपूर्वक स्वयं ही मानो उस बेलारूपी दूतीको ( आपके पास ) भेजा है। (हे भव्य ) जन्मकालसे ही आपको विमल ज्ञानत्रय उत्पन्न है। आप जगत्त्रयका विचार करनेवाले तथा उत्कृष्ट लेश्याओंसे प्रतिबुद्ध हैं। (हम-जैसे सामान्य ) देव आपको क्या सम्बोध करें ? तपस्या कर (आप) कर्म प्रकृतियोंका घात कीजिए और तत्क्षण ही केवलज्ञानको उत्पन्न कीजिए।" ५ उन देवोंने मोक्षसिद्धिके उपायोंको बताते हुए (आगे ) कहा-"भीषण भव-स्वभाव ( जन्म ) का निर्दलन करनेवाले तथा शुद्ध लेश्याधारी हे जिनेश, आप भव-वाससे भयभीत भव्य प्राणियोंको सम्बोधित कीजिए।" इस प्रकार प्रतिबोधित कर वे सुर ऋषि ( लौकान्तिक देव ) जैसे ही अपने निवास-स्थलको लौटे कि तभी तुरन्त ही वहाँ हर्षित मनवाला इन्द्र आ पहुँचा। उसने आनन्दसे भरकर गुरुभक्ति- १० पूर्वक वर्धमानको नमस्कार किया। उसके साथ विशुद्ध मनवाले चारों निकायोंके देव भी थे। मणिमय आभूषणोंवाले उन देवोंने भगवान्का विधिवत् अभिषेक कर पूजा की। नेत्रोंको आनन्दित करनेवाले वे जिनेन्द्र स्वयं ही अपने राजभवन ( का परित्याग कर वहाँ) से निकले और सात पद (आगे ) चले __पत्ता-पुनः नभस्तलमें स्थित रत्नमय 'चन्द्रप्रभा' नामकी शिविका-पालकीमें चढ़कर १५ वे जिनेन्द्र देवोंके मनको अपहरण करनेवाले उस कुण्डपुरसे (बाहर की ओर ) चले। ऐसा प्रतीत होता था, मानो भव्यजनोंसे वेष्टित इस भुवनका ऋण चुकाने ही जा रहे हों ।।१८९।। २० महावीरने नागखण्डमें षष्ठोपवास-विधिपूर्वक दीक्षा ग्रहण की। वे अपनी प्रथम पारणाके निमित्त कूलपुर नरेश कूलके यहां पधारे नागखण्ड नामक वनको आया हुआ जानकर महावीर जिनेन्द्र शिविकासे उतर पड़े और एक स्फटिक मणि-शिलापर बैठकर पूर्वाभिमुख होकर सिद्धोंका स्मरण कर स्फुरायमान आभूषणोंका परित्याग कर, मित्र, शत्रु एवं तृण-मणिमें समभाव धारण कर अगहन मासकी दसमीके दिन जबकि सूर्य अस्ताचल शिखरपर पहुंच रहा था उसी समय वे षष्ठोपवासकी प्रतिज्ञापूर्वक दीक्षित हो गये। ( यह देखकर ) सुरपति, नरपति एवं नागपति हर्षित हो उठे। स्वर्णाभाको भी पराजित कर देनेवाली शरीरको कान्तिवाले उन जिनेन्द्रने पंचमुष्टि केशलुंच किया। तब सुरेश्वरने जिनेश्वरका स्मरण कर स्वयं ही (लुंचित केश ) मणिभाजनमें बन्द कर देवगणों द्वारा प्रशंसित क्षीरसागरमें प्रवाहित कर दिये । (तत्पश्चात् ) उन जिनेन्द्रको प्रणाम कर समस्त देव-समूह ( अपने-अपने योग्य ) सेवाएँ ( अर्पित ) करके अपने-अपने निवास स्थानपर लौट गये। उसी समय उन जिनेन्द्रके ऋद्धियों सहित मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न हुआ। अगले दिन मध्याह्न- १० कालमें जब सूर्य-किरणें दसों दिशाओंमें फैल रही थीं, तभी दया से अलंकृत चित्तवाले वे सन्मति जिनेन्द्र भोजन-पारणाके निमित्त कूलपुरमें प्रविष्ट हुए। घत्ता-देवोंको भी मोहित करनेवाले उस पुर (नगर) के नृपका नाम 'कूल' कहा जाता था (अर्थात् कूलपुरके राजाका नाम कूल अथवा कूलचन्द्र था)। जो अणुव्रतोंका पालक तत्त्वार्थोंके प्रति संशयरहित था तथा जिसने पाठकों (पाठक पदधारी विद्वान् साधुओं) के पास पढ़ा था ॥१९०॥ १५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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