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________________ ९.१४. १४ ] हिन्दी अनुवाद २१३ पत्ता-(ऐरावत हाथीके ऊपर ) पूर्णमासीके चन्द्रमाके समान, जो तीन प्रकारके छत्र थे, उन्हें भक्तिभारका विस्तार करनेवाले ईशानेन्द्रने भवऋणसे उऋण करनेवाले जिनेन्द्रके आगे धारण किया ॥१८२॥ इन्द्र नवजात शिशुको ऐरावत हाथीपर विराजमान कर अभिषेक हेतु सदल-बल सुमेरु पर्वतपर ले जाता है (ऐरावत हाथीपर विराजमान नवजात-शिशु-जिनेन्द्रके ऊपर) सानत्कुमार-इन्द्र स्वयं ही चमर ढुरा रहे थे तथा माहेन्द्र जिन-कुमारकी वन्दना कर रहे थे। भुंगार, चमर, ध्वजा, कलश, विशाल ताल वृन्त ( पंखा), दर्पण, प्रसून-पुष्प पटल एवं रजोवारण ( छत्र ) रूप मांगलिक अष्ट मंगल-द्रव्योंको भव्यजनोंने धारण किया। अन्य देवगण उन जिनेन्द्रके चरणोंके सम्मुख सेवाएँ करते हुए विविध प्रकारसे अपनी भक्ति प्रकट कर रहे थे। आनन्दित हुए वे चतुनिकाय देव मिलकर वेगपूर्वक उस सुमेरु-पर्वतपर पहुँचे, जो स्वर्ण एवं मणि निर्मित जिनेन्द्र-प्रतिमाओंसे अलंकृत अकृत्रिम मन्दिरोंसे शोभायमान एवं भवनमें अद्वितीय था तथा जो ऐसा प्रतीत होता था. मानो दस सहस्र फणावलियोंवाला शेषनाग ही हो। वहाँ केवलज्ञानरूपी नेत्रधारी महामुनियों द्वारा कथित १०० योजन लम्बी, लम्बाईसे आधी चौड़ी ( अर्थात् चौड़ाईमें ५० योजन ) तथा ८ योजन मोटी __घत्ता-चन्द्रमाके समान, हर्षको प्रकट करनेवाली, श्रेष्ठ पाण्डु नामक एक शिला है, जो ऐसी प्रतीत होती है, मानो जिनवरका गम्भीर यश हो उस शिलाके बहाने वहाँ आकर स्थित हो गया हो ॥१८३।। १४ १००८ स्वर्ण कलशोंसे अभिषेक कर इन्द्रने उस नवजात शिशुका नाम राशि __एवं लग्नके अनुसार 'वीर' घोषित किया उस पाण्डुकशिलामें रत्नजटित तीन पीठ बने हुए हैं तथा माणिक्य-राजियोंसे स्फुरायमान प्रत्येक पीठ पाँच-पाँच सौ धनुष प्रमाण है। उस पाण्डुक-शिलाकी ऊपरी पीठपर एक मृगेन्द्रासन सुशोभित है जो ऊँचाईमें ५०० धनुष तथा पृथुलतामें २५० धनुष प्रमाण है । उसपर पाप-विकार रहित त्रैलोक्यनाथ, परमेश्वर, तीर्थंकरको विराजमान करके मध्यके पार्श्ववर्ती सिंहासनपर दोनों ओर प्रथम एवं द्वितीय-सौधर्मेन्द्र ( दायीं ओर ) एवं ईशानेन्द्र ( बायीं ओर ) ने स्वयं ही स्थित ५ होकर देवों द्वारा जय-जयकारकी ध्वनियोंके साथ विधिपूर्वक जन्माभिषेक प्रारम्भ कर दिया। जिननाथके न्हवनकी विधिका स्मरण कर सुमेरु पर्वतसे लेकर क्षीरसागर तक देवोंने समुद्रको रौंद देनेवाली अविरल पंक्ति बनायी और परस्परमें "लो ( लीजिए )" "दो (दीजिए)" इस प्रकार कहने लगे। दूरसे ही लोचनोंकी टिमकारको छोड़ देनेवाले (अर्थात् निनिमेष दृष्टिवाले ) देवेन्द्रोंने १२ योजन प्रमाण प्रदेशमें जलसे परिपूर्ण एवं नील-कमलों द्वारा आच्छादित मुख- १० वाले १००८ स्वर्ण कलशोंसे झल्लर एवं काहल बजाते हुए तथा देवों द्वारा जय-जयके कोलाहलपूर्वक जिनेश्वरका अभिषेक किया। __ घत्ता-भवरूपी भयको हरनेवाले, शिव-सुखको देनेवाले तथा अनन्त वीर्यवाले जिनेन्द्र ध्रुव हैं, इस प्रकार मनमें विचार कर इन्द्रने (राशिफल आदिकी गणना कर) उस नवजात शिशुका नाम वीर घोषित कर उनकी ( इस प्रकार ) स्तुति की ॥१८४॥ १५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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