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________________ ९. १२. ११] हिन्दी अनुवाद २११ कल्पवासी देव विविध क्रीड़ा-विलास करते हुए गगन-मार्गसे कुण्डपुरकी ओर गमन करते हैं । कल्पवासियोंमें विविध देव सम्मिलित होकर प्रशस्त चामर ढोरते हुए भक्ति-भाराक्रान्त भावनासे प्रफुल्लित वदन तथा अनेक प्रकारके विनोदोंसे प्रसन्न मुख होकर चल पड़े। कोई-कोई देव समान, असमान रूपसे नृत्य करते हुए, तो अन्य दूसरे देव मानरहित होकर अप्रमाण रूपसे ( अत्यधिक ) संगीत करते हुए, तो अन्य देव-समूह गर्वरहित होकर अप्रमाण ( अत्यधिक ) रूपसे बाजे बजाते हुए, तो कहीं कोई देवगण अपने-अपने वाहनोंको (होड़ लगाकर ) आगे बढ़ाते हुए, ५ तो कोई अपने शरीरको ही सिकोड़-सिकोड़कर क्रीड़ाएँ करते हुए, तो कहीं कोई हंस (-विमान) पर बैठकर लीलापूर्वक जाते हुए, तो कोई हरि-इन्द्रको ( जाता हुआ) देखकर तथा उसके प्रति आशंकासे भरकर अपने दौड़ते हुए वक्रगतिवाले वाहनको सहसा ही ( उससे पूछने हेतु ) रोकते हुए, तो कोई अन्य देव अंगुली-स्फोट (फोड़ ) करके उसे उसकी आशंकाको दूर करते हुए, तो कोई व्योमरूपी आँगनमें वेगपूर्वक दौड़ते हुए चल रहे थे। कोई देव किसी अन्य देव द्वारा वेगपूर्वक १० पुकारा गया, तो कोई देव देखकर ( अपने से ) ही वहाँ आ गया। कहीं देवियाँ मंगलोच्चार कर रही थीं, तो कहीं व्यापक मन्दल ( मर्दल) गान सुनाया जा रहा था। कलहप्रिय मेष, विशाल हाथी एवं कुत्ते आदि भी एक दूसरेको रोषयुक्त होते हुए नहीं देखे गये। कोई इधर-उधर उछलते-कूदते हुए नगरकी ओर चल रहे थे, मानो भयातुर चूहोंके पीछे क्रूर मार्जार चल रहे हों। उस समय निलक्षण देवगणों एवं देवियोंके रूपको देखकर भला १५ कौन रतिको बाँधता ? पत्ता-इस प्रकार सुन्दर कल्पवासी देवों द्वारा प्रेरित एवं अवलोकित नारी, नर, विद्याधर सभी वहाँ आ रहे थे। ऐसा लगता था, मानो जिनेन्द्रके पुण्यसे प्रेरित होकर ही वे आ रहे हैं ॥१८१॥ इन्द्राणीने माता प्रियकारिणीके पास (प्रच्छन्न रूपसे ) एक मायामयो बालक रखकर नवजात शिशुको (चुपचाप ) उठाया और अभिषेकहेतु इन्द्रको अर्पित कर दिया पाँच प्रकारके ज्योतिषी देव सिंहनाद सुनकर सेवा-कार्यमें तत्पर हो गये। जिननाथके जन्मोत्सव के निमित्त अपने चित्तको धर्ममें निविष्ट कर भवनवासी देव भी भृत्योंके साथ शंखध्वनि-पूर्वक जय-जयकार करते हुए वेगपूर्वक चल पड़े। पटह ( भेरी) नामक बाजेकी पट-पट करनेवाली ध्वनिसे दिशाओंके अन्तरालको भर देनेवाले सेवकोंके साथ विस्तीर्ण-भालवाले व्यन्तर देवेन्द्र भी चल पड़े। (इस प्रकार) कुण्डल-मणियोंकी द्युतिसे स्फुरायमान गण्डस्थलवाले, विनयादि ५ विमल गुणरूपी मणियोंके पिटारेके समान वे सभी चतुनिकायके देव गवं विमुक्त होकर अपरिमित संख्यामें अपने-अपने वेगगामी वाहनों समेत सौधर्मेन्द्रके पास जा पहुँचे ।। जिनेन्द्रके जन्मोत्सवसे अपने जन्मको सफल मानकर वे सभी ( देव-देवेन्द्र मिलकर) राजकुल ( सिद्धार्थके राजभवनमें ) आये। गुण-गरिष्ठ एवं नतशिर उस देवेन्द्रने जिनेन्द्र-माताके सम्मुख आकर उनके दर्शन किये तथा इन्द्राणीने माताके पास (प्रच्छन्न रूपसे ) एक मायामयी १० बालकको रखकर तथा ( बदलेमें वास्तविक ) बालकको अपने हाथोंमें लेकर जब उसे सहस्राक्षइन्द्रको अर्पित किया, तब उसने भी उसे ऐरावत हाथीपर विराजमान कर दिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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