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________________ हिन्दी अनुवाद १२ [ २।६से प्रारम्भ होनेवाली ] राजा नन्दनकी भवावली समाप्त उपशमरूपी लक्ष्मीसे युक्त जो सज्जन पुरुष जिनेन्द्रके समस्त सूत्रोंको जान लेता है, वह मोहका उसी रूपसे हनन कर देता है, जिस प्रकार कि मातंग ( हाथी ) वृक्षका निर्मूलन कर डालता है । ज्ञानरूपी जलसे जिसका चित्त निर्मल एवं अनवरत धर्म-ध्यानसे पवित्र रहता है, वह व्यक्ति मदनरूपी अग्निसे उसी प्रकार जलाया नहीं जा सकता, जिस प्रकार कि सरोवरके मध्य में (किसी को) हुताशन - अग्नि ज्वालासे नहीं जलाया जा सकता । निस्पृह एवं प्रवर संयमरूपी गजपर आरूढ़ होकर प्रशमरूपी प्रहरणास्त्र धारण कर, करुणारूपी कवच ( सण्णा ) से समन्वित, निर्दोष व्रत-शीलरूपी सुशीर्षकों ( टोपवाले अंगरक्षकों ) द्वारा सुरक्षित मुनिराजके तपरूपी संग्राममें पापरूपी शत्रु, जो कि यद्यपि दुस्सहतर एवं भयानक है, फिर भी ठहर नहीं सका। इस संसार में नयज्ञोंके समक्ष दुर्जेय दानव भी कुछ नहीं है। जिन सन्तोंने इन्द्रियों एवं मनको भली-भाँति वशमें कर लिया है, दीनत्व एवं मोहसे जो रहित हैं, ऐसे शुभास्रवी बुधजनोंको १० ( आप ही ) कहिए कि क्या उन्हें यहींपर सिद्धि प्राप्त नहीं हो गयी ? अर्थात् हो ही गयी । उन्होंने ( एक प्रकारसे ) मोक्षरूपी निरुपम सुख-सिद्धि भी प्राप्त कर ही ली । घत्ता - अवधिज्ञान ही है नेत्र जिनके, ऐसे उन मुनिराजने तत्त्वज्ञानी कुलनन्दन राजा नन्दनको ( पूर्वोक्त प्रकारसे ) उसके पूर्वभवोंको (- सिंहसे लेकर यहाँ अर्थात् ८ १२ तकके भवों ) तथा तत्त्वार्थों को बतलाया, जिससे समस्त जन आनन्दित हो उठे । मुनिराजने भी विराम १५ लिया || १६५ || ८. १३.१३ ] उत्पन्न कर घत्ता - उस नन्दनने अपने पृथिवी अर्पित कर एक सहस्र सुन्दर कर ली ॥ १६६ ॥ १३ राजा नन्दनने भी पूर्वभव सुनकर प्रोष्ठिल मुनिसे दीक्षा ग्रहण कर ली उन मुनिराज वचनों को सुनकर राजा नन्दनका मन प्रशान्त हो गया । उसके हर्षाश्रु ऐसे प्रतीत होते थे, मानो ( वह राजा ) उनका वमन ही कर रहा हो। वे ऐसे सुशोभित थे मानो चन्द्रमाकी किरणोंसे हत देदीप्यमान चन्द्रकान्त मणिके प्रवाहित होनेवाले जल - बिन्दु ही हों । अपने वैभवसे इन्द्रको भी जीत लेनेवाले तथा रत्नत्रयसे विभूषित हृदयवाले उस अवनिनाथ नन्दनने भालतलपर करतल रखकर भव्यजनरूप कमल वनके लिए दिनेन्द्रके समान नयालय महामुनीन्द्रको विनम्र भावसे प्रणाम किया । ( और कहा-) 'ऐसे महामुनि श्रेष्ठ विरले ही होते हैं, जो जन हितकारी तथा जिनेन्द्रका ध्यान करते हैं । वे घन (मेघ) भी विरले ही होते हैं, जो विविध प्रकारके उत्तम एवं सुखद रत्नोंको छोड़ते रहते हैं । 'यहाँ देवगणोंको हर्षित करनेवाले प्रबल अवधिज्ञानरूपी नेत्रोंवाले साधु भी विरले ही १० हैं । मणि किरणोंसे व्याप्त तथा उछलते हुए जलवाले विस्तृत जलाशय भी विरले ही होते हैं । आज आपकी वाणीने मेरा प्रयोजन पूर्ण कर दिया है । वह ( वाणी ) मेरा जीवन ( अवश्य ही ) सफल करेगी। मैं अधिक क्या कहूँ ?' इस प्रकार कहकर सज्जनोंके चित्तमें विस्मय Jain Education International १९१ ५ For Private & Personal Use Only ५ धर्मंधर नामक पुत्रको राज्यलक्ष्मी एवं पर्वतों सहित विशाल १५ राजाओंके साथ प्रोष्ठिल मुनिको प्रणाम कर उनसे दीक्षा ग्रहण www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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