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________________ ८.११.१३ ] हिन्दी अनुवाद १० चक्रवर्ती प्रियदत्तने अपने पुत्र अरिजयको राज्य सौंपकर मुनिपद धारण कर लिया तत्पश्चात् उस चक्रवर्तीने दोनों हाथ जोड़कर चरण-कमलोंमें सिर झुकाकर जिनेन्द्रसे मोक्षमार्ग तथा भेद-प्रभेदों सहित पदार्थ, अस्तिकाय, द्रव्यों सहित उत्कृष्ट तीन भेदवाली त्रैलोक्यरचना, अनागार और सागाररूप दो भेदोंवाले धर्मसे सम्बन्धित प्रश्न पूछे । समुद्र, द्वीप और पर्वतराजोंके प्रमाण, जीवोंकी अवगाहन तथा उनके प्राणोंके प्रमाण कषायों, पर्याप्तियों, संज्ञा एवं स्थानों के भेद, अष्ट कर्म, ज्ञान, और ध्यान सम्बन्धी प्रश्न पूछे । जिनेन्द्रने भी उस चक्रनाथके सम्मुख जीवादि समस्त द्रव्यों एवं तत्त्वोंका विवेचन किया, बुद्धिमान् वह चक्राधिप जिनेन्द्रके प्रवचनको एकाग्र मनसे सुनकर तत्क्षण ही प्रबुद्ध हुआ । जिनाधीशकी वाणीके स्पर्शसे उसका हृदय-कमल उसी प्रकार प्रफुल्लित हो गया जिस प्रकार कि सरोवर के जलमें उगा हुआ पद्म सूर्य द्वारा प्रफुल्लित हो जाता है । वह चक्रनाथ मोक्षका पथ जानकर राज्यलक्ष्मी एवं धन-धान्यादिको छोड़कर अक्रोधी, १० निर्मोही, अलोभी एवं अकिंचन तीर्थंनाथ क्षेमंकरको नमस्कार कर घत्ता - अपने अरिंजय नामक बहुश्रुत पुत्रको पृथिवी सौंपकर वह ( चक्रवर्ती) सोलह सहस्र नरवरों के साथ सुरवरोंके देखते-देखते ही दिगम्बर मुनि हो गया ॥ १६३ ॥ ११ चक्रवर्ती प्रियदत्त घोर तपश्चर्याके फलस्वरूप सहस्रार - स्वर्ग में सूर्यप्रभ देव हुआ, तत्पश्चात् नन्दन नामक राजा Jain Education International १८९ मनमें प्रथम दो आतं एवं रौद्र ध्यानोंका परित्याग कर तथा उपशमभावको धारण कर वह चक्रवर्ती तपस्या करने लगा और दुस्सह तपसे शरीरका शोषण कर 'अवसानके समय मनको धीर बनाकर पूर्वोपार्जित पापोंका विधिपूर्वक नाश कर, संन्यासमरण - पूर्वक प्राण त्याग करके वह सहसा ही सहस्रार स्वर्ग में सहज प्राप्त आभरणोंसे अलंकृत काययुक्त तथा दिव्या, अणिमा, महिमा आदि आठ गुणोंकी निर्मल श्रीसे समृद्ध सूर्यप्रभ नामक एक देव हुआ । सुर-सुन्दरियों द्वारा सम्मान प्राप्त उस प्रियदेवकी आयुका प्रमाण अठारह सागर था । 'वही ( सूर्यप्रभ देव ) कमल दलके समान नेत्रवाले तथा नन्दन इस नामसे प्रसिद्ध राजाके रूपमें तुम यहाँ अवतरित हुए हो ।' नाना प्रकारके कर्मों के वशीभूत होकर हर्षं पूर्वक देह ग्रहण कर और छोड़कर यह मनुष्य भवसागर में उसी प्रकार भटकता रहता है, जिस प्रकार वायुके वेगसे आकाशमें जलधर । त्रिकरण - मन, वचन एवं कायसे उस भवसागरका जिसने नाश नहीं किया। वह निरन्तर कष्ट १० ही भोगता रहता है ]। जिसने सर्वोत्कृष्ट एवं दुर्लभ सम्यग्दर्शनको पा लिया, सिद्धि स्वयमेव उसका वरण कर लेती है। यह सुनकर वह नन्दन नृप भी संशय छोड़कर मुनि बन गया । घत्ता - उसी मनुष्यका जन्म सफल है तथा निर्मल मनवाले सज्जन बुधजनोंमें वही प्रधान है, जिसने गुप्त से पापास्रवोंका हनन किया है तथा जिसका चरित्र पापरूप भवसे निकल आया है ॥१६४॥ For Private & Personal Use Only ५ ५ १५ www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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