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________________ ८. ६.४] हिन्दी अनुवाद १८३ उस प्रियदत्तके प्रवरगुण समन्वित नव-निधियां भी उत्पन्न हुई। वे ऐसी प्रतीत होती थीं १० मानो स्वयं सुरप्रधान-कल्पवृक्ष ही अवतरित हो गया हो। वे नव-निधियाँ अपनी श्रीसे मानो धनद-कुबेरकी वैभव-वसुन्धरीका अनवरत रूपसे परिभव प्रकट कर रही थीं। __ उसे सुनकर भी उस नरनाथेश्वर प्रियमित्रको आश्चर्य नहीं हुआ। पृथिवी-मण्डलपर ( सामान्य व्यक्तियोंके ) चित्तको हरण करनेवाली ( आश्चर्यजनक ) वस्तुएँ कहिए कि क्या प्राज्ञ-पुरुषोंको कौतुहलका निमित्त कारण बन सकती हैं ? प्रियमित्रने त्रिभुवनके ईश्वर जिनेश्वरके १५ चरण-कमलोंकी प्रत्यक्ष पूजा कर. ___ घत्ता-दस सहस्र राजाओंके साथ एकमेवाद्वितीय उस राजा (प्रियदत्त) ने सर्वप्रथम उस चक्ररत्नकी पूजा को जिसका प्रसन्न मुखवाले सुरगणों तथा सज्जनोंने निरीक्षण किया ।।१५७|| चक्रवर्ती प्रियदत्तकी नव-निधियाँ कुछ ही दिनोंमें राजा प्रियदत्तने उस चक्ररत्न द्वारा बड़ी ही सरलतापूर्वक पृथिवीके . छहों खण्डोंको अपने वशमें कर लिया। (सच ही है ) महान् पुण्यशाली महापुरुषोंके लिए इस संसारमें कुछ भी असाध्य नहीं है। बत्तीस सहस्र नरेश्वरों, सोलह सहस्र देवेन्द्रों और मदनानलमें झोंक देनेवाली श्रेष्ठ छयानबे सहस्र श्यामा कामिनियोंसे परिवृत वह चक्रवर्ती प्रियदत्त उसी प्रकार सुशोभित रहता था जिस ५ प्रकार देवी-समूहसे सुरराज-इन्द्र । जो पुण्यवान् चक्रवर्ती होते हैं उन्हें (१) नैसपं, (२) पाण्डु, (३) पिंगल, (४) काल, (५) महाकाल, (६) शंख, (७) विशाल पद्म, (८) माणव और (९) सर्वरत्न पद्म नामक ये नौ निधियाँ (स्वयमेव ) प्राप्त हो जाती हैं । अथवा सुखासन (सिंहासन और सोफासैट आदि ) पादासन ( जूते ) ( अथवा पासाय ?= राजमहल ), वरासन तथा मनोज्ञ एवं कोमल रुई आदिसे भरे हुए है। अलंकृत गद्दों, तकियोंसे युक्त शय्यासन आदि मनसे चिन्तित पदार्थोंको नैसर्प-निधि तत्क्षण ही प्रस्तुत कर देती थी। ___ जौ, चना, मूंग, कोदों, तिल, गेहूँ, उड़द, उत्तम तन्दुल तथा अन्य अनेक प्रकारके विकल्पित प्रिय अन्नोंको पाण्डुनिधि प्रदान करती थी। घत्ता-मणि-किरणोंसे दसों दिशाओंको आच्छादित कर देनेवाले स्वर्ण निर्मित केयूर उत्तम १५ कुण्डल तथा विविध अभिलषित दुर्लभ आभरण आदि उस चक्रवर्तीको पिंगल नामक निधि प्रदान करती थी ॥१५८॥ चक्रवर्ती प्रियदत्तको नव-निधियोंके चमत्कार सभी ऋतुओंके सुगन्धित कुसुम फल और विविध गुल्म, लता, पत्र आदि सभी (वनस्पतियां) उस चक्रवर्तीके लिए कालनिधि प्रदान किया करती थीं। ( सच ही है ) भव्यजन पुण्य द्वारा क्याक्या प्राप्त नहीं कर लेते? परिजनोंके मनको सुख प्रदान करनेवाले स्वर्ण एवं रजतमय पात्र तथा ताम्र और लौहमय सुन्दर भवन अथवा मन्दिर महाकाल नामक निधि समर्पित किया करती थी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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