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________________ ७. ८.१२] हिन्दी अनुवाद १६७ 10 सुव्रत मुनि द्वारा कनकध्वजको धर्मोपदेश इस सम्यग्दर्शनको संसारके दारुण दुखोंके विदारनेमें अनन्य कारण जानकर विवेकशील उस राजाने प्रयत्नपूर्वक जिनपदकी भक्ति सहित इस प्रकार विचार किया। “यह जीव मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग सहित प्रमादोंसे कर्मोको बाँधता है। ये अष्टभेद-रूप कर्म ही संसारके ( मूल ) कारण तथा शिवपदस्थानमें प्रवेशका निवारण करनेवाले हैं । जन्म-जन्मान्तरोंमें उपाजित अति अशुभ वह कर्मरूपी महावन दुष्कृतोंका नाश करनेवाले ५ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र एवं तपश्चरणों द्वारा तत्काल ही उखाड़ फेंका जाता है। उस रत्नत्रयमें स्थित हुए पुरुषोत्तमका सिद्धिरूप पुरन्ध्री-वधू सिद्धि हेतु स्वयं ही उसका वरण कर लेती है। अज्ञानी मढ मनुष्य इन्द्रियार्थोकी भावना निरन्तर भाते रहते हैं। वह अतीन्द्रिय सुखकी भावना भी नहीं भाता। किन्तु ज्ञानवन्त जीव हृदयसे इन्द्रियार्थ सुखोंकी इच्छा भी नहीं करते। वे पापोंसे (निरन्तर ) डरते रहते हैं। जन्मसे बढ़कर अनन्य दुख, मृत्युसे बढ़कर भय एवं जरासे १० बढ़कर विरूपता (और क्या हो सकती है ? इन) का विचार कर हे महामति राजन्, आप महन्त महातपका आचरण करें। जो जीव रतिवर-कामकी बाणावलिसे अविरक्त हैं, वे भवसमुद्र में हिंडते ( भटकते ) हैं तथा नाना प्रकारके पुद्गल-कर्मोको ग्रहण करते हैं, ऐसा कोई ( भी ) भूमि अथवा आकाशका प्रदेश नहीं है, जहाँ भ्रमण करते मरते, अनेक बार न जन्मा होऊँ। धत्ता-इस प्रकार जानकर मन संकुचित कर, परिग्रह छोड़कर, महामति मनुष्य विरक्त १५ होकर, तपकर, रतिवरको जीतकर, निवृत्त होकर मोक्ष जाते हैं ।।१४३।। कनकध्वजका वैराग्य एवं दुर्द्धर तप। वह मरकर कापिष्ठ स्वर्गमें देव हुआ इस प्रकार धर्मोपदेश देकर मुनिवरने जब विराम लिया तब खेचरेन्द्रने भी उस ( उपदेश ) को स्वीकार कर तथा संसार ( की अनित्यता) को जानकर अनेक दुखोंके विस्तारक मद-मोहके साथ ही कनकाभरणोंसे दीप्त अपनी प्रिया श्रीकान्ताका भी त्याग कर दिया और उन तपोधन मुनिराजके पास जाकर भव्यजनोंको प्रबोधित करनेवाले शास्त्रोंका अभ्यास किया। गुरु-आज्ञासे मनको संयमित किया और समस्त मूल गुणोंको जानकर निःशेष उत्तर गुणोंको धारण किया और ५ विशेष रूपसे उत्तम शास्त्रोंका चिन्तन करने लगा। ग्रीष्म-कालमें पर्वतपर रविके सम्मुख मिथ्यात्वसे पराङ्मुख होकर प्रतिमायोगसे सदा स्थित रहते थे। वर्षाकालमें दुख उत्पन्न करनेवाले वृक्षके मूलमें निवास करते थे। इसी प्रकार शिशिरकालीन रात्रिमें भी उस कनकध्वजने आत्मसमर्पण नहीं किया बल्कि धृतिरूपी कम्बल द्वारा वहाँ ( खुले में ही) निवास करते थे। वहाँ उपवास-विधान करते हुए तथा जिनेन्द्रका ध्यान करते-करते उसका शरीर दुर्बल हो गया। घत्ता-शरीरको सुखाकर, द्वादश प्रकारके तपोंको तपकर वह खेचरेन्द्र कनकध्वज मरकर देवोंको आनन्दित करनेवाले कापिष्ठ नामक विशेष कल्पमें स्वरूपवान् देव हुआ ॥१४४॥ १० . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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