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________________ १६६ वड्डमाणचरिउ [७.७.१ ७ संसारिय विचित्त दुह-दारणु एउ मुएविणु अण्णु ण कारणु । मइ-जुत्तेण नरेण पयत्त विरइव्वउ इउ जिण-पय-भत्ते । जिउ मिच्छत्ता-ऽविरइ-कसायहिं वंधइ कम्मु सजोय-पमायहिं । अट्ठ-भेउ संसारहो कारणु सिव-पय-ठाण-पएस-णिवारण । सदसणु सणाण-तव-चरणहिं चिर-जम्मऽज्जिय-दुक्किय-हरणहिं । उम्मूलिज्जइ कम्म-महावणु झत्ति समूल वि अइ-असुहावणु । ते सुपरिट्ठिउ सिद्धि-पुरंधिए सइंवरियई पुरिसोत्तम सिद्धिए । णरु अण्णाण-मूदु निरुभावइ इंदियत्थ-सुहुणउ परिभावइ । णाणवंतु ण कयावि समीहइ तञ्चित्तेण वि पावहो वीहइ । जम्महो णऽण्ण दुक्खु मिच्चुहे भउ जरहो विरूउ मुणेवि महातउ । करहि महंत महामइ-राइय रइवर-वाणावलि-अविराइय । भव-रयणायरि जिउ हिंडंतउ णाणा-पुग्गल-कम्मु गहतउ । जहिं ण अणेयवार हउं जाय उ णत्थि कोवि जो भूमि विहायउ । घत्ता-इय वुज्झिवि मणसंकुज्झिवि मुक्त संग मह-मइ णरु । विरइवि तट परिविहुणिवि रउ, जाइ मोक्खु जिणि रइवरु ॥१४३।। 10 15 इय जंपेवि मुणीसरु जावहिं विरमिउं खयरे देण वि तावहिं । तं पडिवजिवि परियाणिवि भउ वहु-दुहु-वित्थारणु तज्जेवि मउ । सहुं खयरेण सिरिए तह कंतए कणय-मया-ऽऽहरणहिं दिप्पंतए । तहो समीवे सो जाउ तओहणु मुणिउं सत्थु भव्व-यण-पवोहणु । गुरु-आणए णिय-मणु संदाणिवि मूलगुणाई असेस वियाणिवि । उत्तरगुणई करइ णीसेसई चिंतइ वर-सत्थई सविसेसई। गिम्हे गिरिंदोवरि रवि सम्मुहुं ठाइ सया मिच्छत्त परम्मुहुँ । पडिमा-जोएं पाउसे रुक्खहो मुले वसइ उप्पाइय दुक्खहो । सिसिर कालि रयणिहिं ण समप्पइ धिदि-कंवल-वसेण तहिं णिवसई। तहो उववास-विहाण-रयंतहो दुव्वल-तणु हुउ जिणु झायंतहो । घत्ता-सोसिवि वउ दुवदस विहितउ, करि सो मरि सुरु हूवउ । कापिट्ठए कप्पि विसिट्टए देवाणंद सुरुवउ ।।१४४॥ 10 ७. १. D.V. तवित्तेण । २. D. J. V. मिच्छु । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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