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७. ६. १२] हिन्दी अनुवाद
१६५ ली। दुर्लभ राज्यलक्ष्मीका संग प्राप्त कर तथा ( विशाल ) राज्य-संचालन करते हुए भी उसके मनमें मद जागृत न हुआ। ( ठीक ही कहा गया है कि ) महान् एवं सज्जन पुरुषोंके लिए महान् विभूति विनोदका कारण नहीं बन पाती।
__ घत्ता-शशि समान दीप्तिवाले एवं निर्मल कीर्तिवाले उस राजासे समस्त जनोंका अनुराग बढ़ गया। अपने कर्तव्य-कार्यको समझनेवाली उस कनकप्रभा भार्याने हेमरथ नामक पुत्रको १५ जन्म दिया ॥१४०॥
कनकध्वज अपनी प्रिया सहित सुदर्शन मेरुपर जाता है
__ और वहाँ सुव्रत मुनिके दर्शन करता है इस प्रकार संसार-सुखको मानता हुआ वह पंचेन्द्रियोंका पालन-पोषण कर रहा था। स्त्रियोंके मनको मदनके शरोंसे भेदता हुआ अपने महलमें निश्चिन्त रहता था।
इसके अनन्तर एक दिन अतिकान्ता ( अत्यन्त प्रिय ) अपनी कान्ता कनकप्रभा सहित वह खेचरपति कनकध्वज क्रीडा हेतु सुदर्शन नामक खेचरालीसे विहित ( उत्सववाले ) सुन्दर नन्दन वनमें गया। वहाँ अशोक-वृक्षके नीचे विमल शिलातल पर महाव्रतधारी दोनों प्रकारके तीव्र ५ तपको तपनेवाले अति क्षीण अंगवाले, क्षमागुणसे अलंकृत, शीलके आलय, उपशम-श्री द्वारा वरे हुए, चारु-चरित्रवाले, पवित्र दयामें तत्पर, त्रिकरणकी विधिसे त्रस एवं स्थावरकी रक्षा करनेवाले, सुव्रत नामक एक विशिष्ट मुनिराजको देखकर वह खेचराधिप उसी प्रकार प्रहर्षित हुआ, जिस प्रकार कोई दरिद्र व्यक्ति ( सहसा ही ) निधि-लाभ करके सन्तुष्ट हो जाता है। अथवा जिस प्रकार जन्मसे अन्धा व्यक्ति ( सहसा ही ) दो नेत्र पाकर प्रसन्न हो जाता है उसी प्रकार वह (राजा) १० भी ( मुनिराजको देखकर ) अपने मनमें फूला न समाया।
घत्ता-जिनवरकी भक्ति से भरकर उस राजाने जब मुनिराजकी वन्दना कर उन्हें प्रणाम किया तब उन गुणी मुनिराजने भी उसे 'धर्म वृद्धि' रूपी आशीर्वाद प्रदान किया ॥१४१॥
सुव्रत मुनि द्वारा कनकध्वजके लिए द्विविध-धर्म एवं सम्यग्दर्शनका उपदेश
तब पुनः खेचरेन्द्रने सुव्रत मुनिराजको प्रणाम कर हृदयमें समाहित हो प्रश्न पूछा। तब उन मुनिराजने उसे धर्म-मार्ग बतलाया और कहा कि मोहभावका प्रसार प्राणीका विनाश कर देता है। अनिन्द्य जिनेन्द्रने धर्मका मूल जीव-दया कहा है। और उस धर्मको स्वर्ग-मोक्ष-सुखका कारण कहा है। वह धर्म दो प्रकारका जानना चाहिए जो कि भव्यजनोंको हृदयसे मानना चाहिए। प्रथम सागार धर्म अणुव्रत विधिसे युक्त होता है जो गृह निरत श्रावकों द्वारा रक्षित कहा गया है। ५ दूसरा धर्म अनगारोंका है। जो रागरहित मुनिराजों द्वारा महाव्रत रूपसे धारण किया जाता है। हे खेचरेश्वर, चारों देव निकायोंको आनन्दित करनेवाले दोनों धर्मोका मूल सम्यग्दर्शन कहा गया है । जो संसारमें भवरूपी दुखोंका विध्वंस करनेवाला है। जो सात प्रकारके तत्त्वों अथवा त्रिविध रत्नत्रयका श्रद्धान करता है वह गुणोंका आकार सम्यग्दर्शन कहा गया है। जो संसार-समुद्रसे तरनेके लिए तरण्ड अर्थात् नौकाके समान है।
हिंसा, अलीक, धन-कणकी चोरी, रमणीजनोंका संग एवं सकल पदार्थ रूप पाँच पापोंकी सकल विरति मुनियोंके होती है। इन्हीं पाँचों पापोंकी स्थूल निवृत्ति गृहस्थोंके होती है ॥१४२॥
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