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________________ ६.१६.११] हिन्दी अनुवाद १५५ मृगराजको सम्बोधन यह काय दुर्गन्धरूप, चर्मपटलसे आच्छादित, नाना प्रकारकी व्याधियोंमें परिलिप्त, विकट हड्डियोंसे युक्त दृढ़ यन्त्रके समान है तथा पंचरस, वसा, रुधिर और अंतड़ियोंसे युक्त है। हे सिंह, यह जानकर तू ममत्वसे ( अपने ) मनको विमुख कर। हे मृगपति ! यदि तू मोक्ष-सुखको चाहता है तो शीघ्र ही दोनों प्रकारके परिग्रहोंको त्याग। दुर्ग्रहोंके समान ही घर, पुर, नगर, आकर, परिजन, गो, महिष, दास, कंचन और कठा ( धान्य ), रूप बाह्य परिग्रहोंको अपने मनसे हटा। ५ मिथ्यात्व, वेद, एवं राग सहित हास्य ( रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा) आदि अहितकारी दोषोंसे युक्त तथा चार कषायें ये अभ्यन्तर-परिग्रह कहे गये हैं। इन्हें जानकर तू सम्यग्ज्ञान एवं सम्यग्दर्शनादि गुणोंसे युक्त आत्माका चिन्तन कर। इस प्रकार रागके समागमके लक्षणोंको विलक्षण भावरूप एवं भिन्न समझ। जब तू संयमरूपी पर्वतकी अज्ञानान्धकारका हरण करनेवाली सम्यक्त्वरूपी गुफामें निवास करेगा तथा . घत्ता-हे मृगेन्द्र, वहाँ तू अपने उपशम भावरूप नखोंसे क्रूर कषायरूपी गजेन्द्रोंका दलन करेगा तब वहाँ स्पष्ट ही भव्य मतीन्द्र-ज्ञानी बनेगा ॥१३२॥ १६ सिंहको सम्बोधन-करुणासे पवित्र धर्म ही सर्वश्रेष्ठ है मनका विचारा हुआ कोई भी भौतिक सुख हितकारी नहीं होता, क्योंकि उससे कर्मक्षय नहीं हो पाता । ( इस प्रकार ) दुष्ट स्वभाव होते हुए भी उस सिंहने जिनवाणीरूपी रसायनका अपने कर्णरूपी अंजलि-पुटोंसे पान किया। विषयरूप विषकी तृषाका निरसन, कहो कि, किस भव्य-पुरुषको अजर-अमर नहीं बना देता ? (हे सिंह तू ) अपनी क्रोधाग्निको शमरूपी समुद्रसे शान्त कर, अति उत्तम मार्दवसे मानका दमन कर, आर्जव-गुणसे मायाको जीर्ण ( शीर्ण ) कर, ५ शौच ( अन्तर्बाह्य पवित्रता) पूर्ण उच्च मनसे लोभको छोड़। हे हरिवर, यदि तू दुस्सह परीषहोंसे न डरेगा ( और ) उपशममें रत रहेगा, तब तेरा समस्त निर्मल यश धरणीतल एवं गगनतलको धवलित कर देगा। ( अब तू ) बुधजनों द्वारा स्तुत पंच-परमेष्ठियोंके चरण-कमलोंमें प्रणाम कर। तीनों शल्यों, दोषों, मदोंको छोड़, तथा प्रयत्नपूर्वक अणुव्रतोंका पालन कर। ___घत्ता-हे हरिणाधीश, अपने चित्तसे शरीरके प्रति ममत्व-भावका सर्वथा परित्याग कर १० तथा जो करुणासे पवित्र है उस (धर्म ) को ( पालन ) कर ।।१३३।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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