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हिन्दी अनुवाद
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नरक -दुख वर्णन
उस सघन वृक्षमें खेद - खिन्न अंगवाला वह ( त्रिपृष्ठका जीव ) कुछ क्षण विश्राम करना चाहता था, किन्तु किसी भी प्रकार वहाँ आराम नहीं पाता था । शस्त्रोंके समान अति तीक्ष्ण मुखवाले पैने पत्तोंसे युक्त वृक्षों द्वारा नानाविध दुखोंके साथ उसे विदीर्णं कर दिया जाता था । समस आदि दुष्ट कीड़ों द्वारा डस लिया जाता था, वज्रमयी चोचोंसे खाया जाकर नष्ट कर दिया जाता था फिर अग्निमें झोंककर प्राणापहारी मुद्गर-प्रहारोंसे चूरा जाता था । कर-पत्र - ५ आरारूपी तीक्ष्ण खड्ग धारासे फाड़ डाला जाता था, दृढ़तापूर्वक बाँधकर तथा लिटाकर उसे बार-बार पीटा जाता था । वज्रमयी नारीसे आलिंगित किया जाता था । नारकियोंके सम्मुख वह करुण क्रन्दन करता था, और भी, भैंसा, हाथी व कुक्कुटके शरीर धारण कर तथा असुर कुमार ( जातिके देवों ) द्वारा प्रेरित होकर वह शीघ्र ही क्रोधपूर्वक दौड़कर लाल-लाल नेत्रोंसे देखता था और अन्य नारकियोंके साथ हड़बड़ाकर जूझ पड़ता था । नारकियोंके झुण्डको देखते १० ही क्षुब्ध होकर दोनों हाथों और पैरोंसे रहित होनेपर भी ( शाल्मलि - ) वृक्षपर चढ़ जाता था । अपनी बुद्धिसे सुखप्रद मानकर ( उसने ) जो-जो भी उपाय किये वे-वे सभी उसे निश्चय ही अधिक दुखद ही सिद्ध हुए -- इस प्रकारके नरकके दुखोंको सहकर तू अपने खर-नखोंसे करि-कुम्भको विदीर्ण कर देनेवाला मृगराज हुआ है ।
घत्ता - इस प्रकार हे हरिणाधीश, तेरी भवावलि कही । अब पुनः चित्त स्थिर कर आगे १५ की सुन ॥१३०॥
६. १४. १२ ]
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अमिततेज मुनि द्वारा मृगराजको सम्बोधन । सांसारिक सुख दुखद ही होते हैं
अविरति कषाय और योगोंमें स्थित तथा मिथ्यात्व और प्रमादमें निरत यह जीव,
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परिणामोंके वश ( अपने योग्य ) बन्ध - कर्मबन्ध करता है और ( चारों गतियोंमें ) उत्पन्न होता है, ऐसा त्रिलोकाधिपने स्पष्ट कहा है । वह बन्धसे चतुर्गति रूप गमनको प्राप्त करता है । गतियोंके अनुबन्धसे ही वह विग्रहको धारण करता है । विग्रहसे शीघ्र ही इन्द्रियाँ मिलती हैं, इन्द्रियोंसे विषय-रति उत्पन्न होती है । विषय रतिसे पुनरपि राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं । जिनके कारण वह चिरकाल तक निरन्तर ही भवसागरमें घूमता-भटकता रहता है। जीवका यह कर्मबन्ध व्यय-युक्त अथवा आदि व्ययसे रहित है, ऐसा जिनेन्द्रने कहा है । अतः हे मृगपति, तू शान्तिका निलय बन, तथा विरती बनकर कषाय-दोषों का विलय कर, कुमति - मिथ्यात्व के अनुबन्धका शीघ्र ही त्याग कर, जिनवरके दुर्लभ मतकी अपने मनमें भावना कर, अपने समान ही समस्त जीवोंको गिन, जिनमतका स्मरण कर ( जीवोंके ) वधसे रतिविहीन हो, अरे, जिसे इन्द्रियोंका सुख कहा जाता है, हे सिंह, उसे भी तू दुख ही जान ।
घत्ता - यह काय नौ-छिद्रोंसे युक्त, अपवित्र, शिरा-समूहसे बँधा हुआ, कृमि -समूहसे भरा हुआ, विनश्वर तथा मलसे परिपूर्ण रहती है || १३१॥
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