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________________ ६.१२.१३] हिन्दी अनुवाद १५१ त्रिपृष्ठ-नारायण नरकसे निकलकर सिंहयोनिमें, तत्पश्चात् पुनः प्रथम नरकमें उत्पन्न । नरक-दुख-वर्णन इसी मध्यमें त्रिपृष्ठ-नारायणने नरकमें विचित्र दुखोंको भोगा, वहाँ वह लेश मात्र भो सुखानुभव न कर सका। जिस किसी प्रकार वह चक्रपाणि नदी और तालाबोंसे हर्षित भारतवर्षमें एक पर्वत-शिखरपर पिंगल-नेत्र, भयानक दाढ़ों एवं तमतमाते वदनवाला तथा सिंहोंमें भी भयानक सिंह योनिमें उत्पन्न हुआ। वह ऐसा प्रतीत होता था, मानो दूसरा वैवस्वत-पति-यमराज ही अवतरित हुआ हो। निरन्तर दुरिताशय वह हरि-त्रिपृष्ठका जीव ( सिंह ) पापकारी कार्य करके पुनः प्रथम नरकमें जा पहुंचा। हरिका वह जीव-मृगेन्द्र जिस नरकमें जाकर उत्पन्न हुआ वहाँके दुखको अपनी बुद्धिके अनुसार कहना चाहता हूँ; (क्योंकि ) उसे कहे बिना रहा नहीं जाता। अतः अब तुम उसे सुनो-“कृमि-समूहका वहन करनेवाले, दुर्गन्धि पूर्ण, हुण्डक संस्थानवाले तथा काले शरीरको १० प्राप्त कर (वे नारकी ) जहाँ उत्पन्न होते हैं, उस स्थानसे बाणकी तरह नोचेको ओर मुख करके वे ( नरक भूमिपर ) गिर पड़ते हैं। भयाक्रान्त चित्तवाले दूसरे नारकी उसे देखकर भयंकर घरघराती हुई आवाज में घत्ता-कहते हैं—'मारो', 'मारो', 'पकड़ो', 'पकड़ो'। उसे सुनकर वह नारकी अपना सिर धुनता हुआ मनमें विचारता है-॥१२८॥ १२ नरक-दुख-वर्णन "मैं कौन हूँ ? मैंने पूर्वभवमें क्या पाप किया था ? जिस कारण मैं तत्काल ही यहाँ उत्पन्न हो गया।" इस प्रकार विचार करते हुए उस नारकी ( त्रिपृष्ठके जीव ) को तत्काल ही कलह करानेवाला कुअवधिज्ञान उत्पन्न हो गया। उसने अपने उस कुअवधिज्ञानसे कण-कण तक जान लिया तथा पाँच प्रकारके दुखोंसे पीड़ित हो गया। उसे नारकी जन मिलकर अग्निमें झोंक देते थे, मुख फाड़कर धुआँ पिला देते थे, यन्त्रों ( कोल्हू ) से पेल डालते थे। वह करुणाजनक दहाड़ ५ मारकर विलाप करता रहता था। अति क्रूर तिर्यंचों द्वारा विदारित शरीरसे युक्त वह भयंकर भयसे आक्रान्त होकर क्रन्दन करता रहता था। सहज ही उत्पन्न प्यासके कारण मुख सूखता रहता था, फिर भी वैरीजन बार-बार शीघ्रतापूर्वक उसका विदारण करते रहते थे और विषमिश्रित पानी पिलाकर मार डालनेके विचारसे उसे वैतरणी नदीमें त्वरित-गतिसे प्रवेश करा देते थे। वहाँ उस नदीके दोनों किनारोंपर बैठे नारकीजन हाथमें लिये हुए वज्रमय लाठियोंसे बार-बार उसे मारकर डुबाते रहते थे और इस प्रकार नाना प्रकारके दुख देते रहते थे। जिस किसी प्रकार कोई छिद्र स्थल पाकर शीघ्र ही वह पृथिवीतलपर आ पाता था घत्ता-तब, वहाँ भी विकराल मुखवाले सिंह और व्याघ्रों द्वारा हत होनेके कारण अत्यन्त दुखी हो वह ( बेचारा ) सघन वृक्षोंवाले वनमें प्रवेश कर जाता था ॥१२९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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