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६.१०.१३]
हिन्दी अनुवाद
द्युतिप्रभा-अमिततेज एवं सुतारा-श्रीविजयके साथ विवाह सम्पन्न
तथा त्रिपृष्ठ-नारायणको मृत्यु सखियों द्वारा अनुक्रमसे निवेदित श्रेष्ठ सौन्दर्यादि गुणोंवाले राजाओंको छोड़कर सरससुहावनी तथा लज्जितमुखी उस द्युतिप्रभाने अपना मुख फेरकर अमिततेजके सुकोमल कण्ठस्थलमें विधिपूर्वक जयमाला डाल दी।
ध्वजपटोंके समूहसे परिझम्पित आकाशस्थित स्वयंवर-मण्डपमें नर-राजाओंके देखते-देखते ही खेचरोंके मनको हरण करनेवाली सुताराने रुणझुण-रुणझुण करते हुए भ्रमरों द्वारा सुशोभित ५ पुष्पमालाको शीघ्र ही श्रीविजयके सुन्दर गलेमें डाल दी।
इस प्रकार खेचर-राजाओंको मोहित करनेवाले अपनी पुत्रीके शुभ-विवाहको सम्पन्न करके शत्रुजनों द्वारा अनिजित वह अर्ककीर्ति चक्रवर्ती (त्रिपृष्ठ ) एवं हलधर ( विजय ) द्वारा विसर्जित किया गया। वह अर्ककीर्ति भी सन्तुष्ट होकर जिस किसी प्रकार ( बहन स्वयंप्रभाको छोड़कर ) अपने पुत्रके साथ वहाँसे निकलकर अपने नगर पहुंचा।
तीनों खण्डवाली पृथ्वीसे युक्त चक्रवर्ती-पदरूपी लक्ष्मीका समिच्छित भोग करके सोते-सोते ही अपने निदानके वशसे रौद्रध्यानपूर्वक मरकर पापी त्रिपृष्ठ
पत्ता-तत्काल ही दुस्तर दुखोंके गृह-स्वरूप तेंतीस सागरकी आयुवाले सातवें नरकमें जा पहुंचा ॥१२६॥
त्रिपृष्ठ-नारायणको मृत्यु और हलधरको मोक्ष-प्राप्ति उस त्रिपृष्ठ-नारायणकी दुर्गति देखकर नयनाथप्रवाहसे सिंचित अधरवाला वह सीरधर (-विजय ) विलाप करने लगा। उसने अपने हाथोंसे सिर-उरु आदिको ऐसा विधुनित कर डाला जिस प्रकार कि मुनिवरोंका मन विद्रवित हो जाता है। स्थविर मन्त्रियोंने उसे बोधित किया तथा उपदेश-प्रद प्रवचनोंसे जिस किसी प्रकार उसे विमोहित-(मूर्छारहित ) किया। उस ( हलधर ) ने भी अशरणरूप दुखकारी एवं क्षण-भंगुर भव-गतिको जानकर तथा अनुजके मरण सम्बन्धी ५ मनके शोकको छोड़कर, विधुर मनवाली हरिकान्ता-स्वयंप्रभाको भी महान मोहके कारण उत्पन्न पीडाको हरनेवाले सुखकारी वचनोंसे सान्त्वना देकर; अपने यशसे धवलित आकाश रूपी वस्त्रसे आच्छादित पीताम्बरधारी त्रिपृष्ठ-नारायणका अग्निदाह कर तथा संसारके दुखसे भयभीत होकर, श्रीविजयके लिए लक्ष्मी सहित समस्त पृथ्वीका राज्य सौंप दिया ( तत्पश्चात् ) उस हली ( विजय ) ने निष्कम्प मुनिराज कनककुम्भके चरण-कमलोंमें प्रणाम कर मायाविहीन एक सहस्र १० राजाओं सहित शिक्षाविधिपूर्वक जिन-दीक्षा ग्रहण कर ली और अपने तप-तेजसे उसने घातियाचतुष्कका हनन कर केवलज्ञान द्वारा त्रिलोकको सुना।
पूर्व-सम्बोधित शेष अघाति-कर्मोंको भी नष्ट कर गतिमें सहायक धर्म द्रव्यकी सहायतासे बल (-विजय ) ने मोक्षालय प्राप्त किया ॥१२७।।
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