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________________ हिन्दी अनुवाद १२१ अनिन्द्य वारणेन्द्रपर राजा प्रजापति मंगल-विधियों पूर्वक शीघ्र ही सवार हुआ। कवचोंसे सज्जित खेचर सेनासे युक्त होकर, समरमें धूर्त (कुशल ) वह तेजस्वी ज्वलनजटी विद्याघर भी तलवारकी मँठ हाथमें पकड़े हए तथा श्रेष्ठ हाथीपर सवार होकर निकला। विस्तीर्ण वंशमें शिक्षाके समान. गम्भीर घोषमें निरन्तर महान्, अपने दर्शन (आँखें दिखा देने) मात्रसे ही शूरवीरोंको विद्रावितकर देनेवाला, रणभूमिमें युद्ध करने में शूर, ( शत्रुजनोंके-) दर्पका दलन करनेवाला, अर्ककीर्ति १० भी तत्काल ही गिरीन्द्रोंको विदीर्ण कर डालनेवाले दुर्जेय करीन्द्रपर सवार हो गया। 'मेरी देह तो वज्रके समान ही है अतः मैं इस कवचको तुच्छ समझता हूँ।' इस प्रकार कहकर समर जयरूपी श्रीमें रत विजयने निश्चय ही उस कवचको छुआ तक नहीं। पत्ता-निर्मल तनुवाला वह बलदेव (-विजय ) अंजनके समान काले 'कालमेघ' नामक महान् हाथीपर सवार होकर ऐसा सुशोभित हुआ, मानो कामदेवके मण्डित गलेपर शिशिर- १५ कालीन पूर्णचन्द्र ही विराजमान हो ।।१०२।। . त्रिपृष्ठ अपनी अवलोकिनी विद्या द्वारा शत्रु-सैन्यको शक्तिका निरीक्षण एवं परीक्षण करता है दुवई "मैं समस्त महिवलयका रतिकान्त हूँ, मेरा पौरुष कभी भी नहीं थका।" इस प्रकार ( कहकर ) भय-विजित उस सन्नाथ हरि-त्रिपृष्ठने कवचका सर्वथा परित्याग कर दिया (धारण ही नहीं किया )। सौन्दर्यमें जो शरद्कालीन मेघके समान था, ऐसा तथा गरुडध्वजके समान एवं विसदृश गुण-गणरूपी लक्ष्मीका निकेत वह हरि-त्रिपृष्ठ हिमगिरिके समान अपने करीन्द्रपर सवार हो ५ गया। वह ( उस समय ) ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो रौप्य गिरीन्द्र (विन्ध्याचल ?) पर नवीन जलधर ही स्थित हो। सुन्दरतर गगनांगणमें आये हुए देवगण उसे चारों ओरसे घेरकर खड़े हो गये। नवीन सूर्यबिम्बके समान रूप-सम्पदावाले उस त्रिपृष्ठकी आज्ञासे दर्पोद्धत वे (सभी भट) चले। उनके महान् गरुड़ध्वजोंसे वारिवाह-मेघगति रुक गयी। x xxxx। हरि-त्रिपृष्ठने १० इच्छित कार्यको पूर्ण कर देनेवाली अपनी अवलोकिनी ( विद्या ) नामकी देवीको शत्रु-सेनाके देखने हेतु ( अर्थात् उसके प्रमाण एवं शक्तिका पता लगाने हेतु ) भेजा। वह देखने हेतु दौड़कर वहाँ ( शत्रु-स्थलपर ) जा पहुँची तथा ( सारे रहस्योंको ज्ञात कर वहाँसे ) लौटकर बोली-“दुष्ट राजाओंके साथ वह खेचरेन्द्र तुरगगल ( हयग्रीव जैसे ही ) तैयार होकर उठनेवाला था कि उसके पूर्व ही आपके तेजके प्रभावसे उन ( समस्त ) शत्रु-विद्याधरोंकी विद्या छिन्न-भिन्न हो गयी। १५ समस्त विद्याधरोंके पक्ष काट लिये गये। अब युद्ध में कोई भी मनुष्य उन्हें पकड़ सकता है।" ( इस प्रकार ) उन विद्याधरोंके वैरियों ( त्रिपृष्ठ आदि ) को शत्रुसेनाका वृत्तान्त सुनाकर वह ( अवलोकिनी-विद्या नामकी ) देवी चुप हो गयी तथा अपने दोनों हाथोंसे देवोंके मनको हरण करनेवाली कुसुमांजलियाँ उस त्रिपृष्ठके सिरपर बिखेर दीं। पत्ता-देवोंने नवीन नीरधर-मेघके समान गर्जना करनेवाले बलभद्र-विजयको उसकी २० विजय हेतु गदा, लांगल, मुसल एवं अमोघमुखी शक्ति प्रदान की ।।१०३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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