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प्रस्तावना
V. प्रति की विशेषताएँ
१. कहीं-कहीं पदके आदिमें 'ण' के स्थानमें 'न'का प्रयोग किया गया है ।
२. भूलसे छूटे हुए पाठांशोंके लिए हंस-पद देकर आर या नीचेकी ओरसे गिनकर पंक्ति-संख्या तथा जोड़ (+) के चिह्नके साथ उसे ऊपरी या निचले हाँसियेमें अंकित कर दिया गया है।
३. अशुद्ध वर्णों या मात्राओंको सफेद रंगसे मिटाया गया है ।
४. 'क्ख' की लिखावट 'रक' ( पत्र-सं. २६ ब, पंक्ति ७) एवं 'ग्ग' को 'ग्र' (पत्र-सं. ४८ अ, पं. ५) के समान लिखा है।
५. अनावश्यक रूपसे अनुस्वारके प्रयोगकी बहुलता है ।
६. इस प्रति की एक विशेषता यह है (जो कि प्रतिलिपिकारकी गलतीसे ही सम्भावित है) कि इसमें 'विसाल' के लिए 'विशाल' ( पत्र सं. ६३ ब, पं. १. ९।४।६) एवं 'पुप्फ' के लिए 'पुष्प' ( पत्र-सं. ६२ ब, पं.८; ९।५।६ ) के प्रयोग मिलते हैं। 'पुष्प' वाला रूप D. प्रतिमें भी उपलब्ध है।
. इस प्रकार उपर्युक्त तीनों प्रतियां न्यूनातिन्यून अन्तर छोड़कर प्रायः समान ही हैं। तीनों प्रतियोंमें अन्तिम पृष्ठ उपलब्ध न होनेसे उनके प्रतिलिपिकाल एवं स्थान आदिका पता नहीं चलता, फिर भी उनकी प्रतिलिपिको देखकर ऐसा विदित होता है कि वे ४००-५०० वर्ष प्राचीन अवश्य हैं। उनकी प्रायः समरूपता देखकर यही विदित होता है कि उक्त तीनों प्रतियोंमें से कोई एक प्रति अवशिष्ट प्रतियोंके प्रतिलेखनके लिए आधार-प्रति रही है। मेरा अनुमान है कि D. प्रति सबसे बादमें तैयार की गयी होगी क्योंकि उस ( के पत्र सं. ४६ ब, पं.८; ५।१६।१२) में 'कज्जिसमण्णु.......अण्णु' के लिए 'कज्जी समण्णु अण्णु' पाठ मिलता है, जबकि V. प्रति (के पत्र-सं. ४० ब, पं. ८-९; ५।१६।१२) में वही पाठ 'कज्जी समण्णु...अण्णु' अंकित है । वस्तुतः V. प्रतिका पाठ ही शुद्ध है। D. प्रतिका प्रतिलिपिकार इस त्रुटित पाठ तथा उसके कारण होनेवाले छन्द-दोषको नहीं समझ सका । इसी कारण वह प्रति अन्य प्रतियोंकी अपेक्षा परवर्ती प्रतीत होती है ।
ग्रन्थकार-परिचय, नाम एवं काल-निर्णय 'वड्डमाणचरिउ'में उसके कर्ता विबुध श्रीधरका सर्वांगीण जीवन-परिचय जानने के लिए पर्याप्त सन्दर्भ-सामग्री उपलब्ध नहीं है। कविने अपनी उक्त रचनाकी आद्य एवं अन्त्य प्रशस्तिमें मात्र इतनी ही सूचना दी है कि वह गोल्ह (पिता) एवं वील्हा ( माता ) का पुत्र है तथा उसने वोदाउव निवासी जायस कुलोत्पन्न नरवर एवं सोमा अथवा सुमति के पुत्र तथा वीवा ( नामकी पत्नी) के पति नेमिचन्द्रकी प्रेरणासे असुहर ग्राम में बैठकर 'वड्डमाणचरिउ' की वि. सं. ११९० की ज्येष्ठ मासकी शुक्ला पंचमी सूर्यवारके दिन रचना की है । इस रचनामें उसने अपनी पूर्ववर्ती अन्य दो रचनाओंके भी उल्लेख किये हैं, जिनके नाम हैं-चंदप्पहचरिउ एवं संतिजिणेसरचरिउ । किन्तु ये दोनों ही रचनाएँ अद्यावधि अनुपलब्ध हैं। हो सकता है कि उनकी प्रशस्तियोंमें कविका जीवन-परिचय विशेष रूपसे उल्लिखित हुआ हो ? किन्तु यह तो इन रचनाओंको प्राप्तिके अनन्तर ही ज्ञात हो सकेगा। प्रस्तुत कृतिमें कविने समकालीन राजाओं अथवा अन्य किसी ऐसी घटनाका भी उल्लेख नहीं किया कि जिससे उसके समग्र जीवनपर कुछ विशेष प्रकाश पड़ सके।
१. बढ़माण, १।३।२। २. वही,१०१४१५। ३-४. वही, १।२।१-४; १।२१-३; १०।४।१-५ ।
१. वही, १०४१।४। ६. वही,१०१४१७-१। ७. वही, १२।६।
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