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बड्डमाणचरिउ इस ग्रन्थका प्रथम पत्र अत्यन्त जीर्ण-शीर्ण हो जानेके कारण उसे एक सादे कागजपर चिपका दिया गया है। ग्रन्थका मूल-विषय काली स्याही तथा घत्ता एवं उसकी संख्या और पुष्पिका लाल स्याहीमें अंकित है। पत्र संख्या प्रत्येक 'अ' पत्रकी बायीं ओर हाँसियेमें नीचेकी ओर अंकित है। D. प्रतिकी विशेषताएँ
१. इस प्रतिमें नकारके स्थानपर नकार और णकार दोनोंके प्रयोग मिलते हैं।
२. अशुद्ध मात्राओंको मिटानेके लिए सफेद रंगका प्रयोग तथा भूलसे लिखे गये अनपेक्षित शब्दोंके सिरेपर छोटी-छोटी खड़ी ३-४ रेखाएं खींच दी गयी हैं ।
३. भूलसे छूटे हुए पदों अथवा वर्णों को हंस-पद देकर उन्हें हाँसियेमें लिखा गया है तथा वहाँ सन्दर्भसूचक पंक्ति-संख्या अंकित कर दी गयी है। यदि छूटा हुआ वह अंश ऊपरकी ओरका है तो वह ऊपरी हाँसिये में, और यदि नीचेकी ओरका है तो वह नीचेकी ओर, और वहींपर पंक्ति-संख्या भी दे दी गयी है । हाँसियेमें अंकित पदके साथ जोड़ (+) का चिह्न भी अंकित कर दिया गया है। कहीं-कहीं किसी शब्दका अर्थ भी हाँसियेमें सूचित किया गया है और उस पदके नीचे सुन्दरताके साथ बराबर (= ) का चिह्न अंकित कर दिया है।
४. दु और नु की लेखन-शैली बड़ी ही भ्रमात्मक है । वह ऐसी प्रतीत होती है, मानो 'ह' लिखा गया हो।
५. 'ध' में उकारकी मात्रा 'ध' के नीचे न लगाकर उसके बगलमें लगायी गयी है। उदाहरणार्थ 'धुत्तु'के लिए 'ध' में 'उ' की मात्रा इस प्रकार लगायी है जैसे 'र' में 'उ' की मात्रा लगाकर 'रु' बनाते हैं। (दे. पत्र-सं. ४ अ, पंक्ति ३; ११७)
६. ह्रस्व ओकारको विशिष्ट उकारके रूपमें दर्शाया गया है जो सामान्य उकारसे भिन्न है।
७. संयुक्त णकारको 'ण' के बीचमें ही एक बारीक आड़ी रेखा डालकर दर्शाया गया है । V. प्रति-परिचय
यह प्रति ब्यावर ( राजस्थान ) के श्री ऐलक पन्नालाल दि. जैन सरस्वती भवनमें सुरक्षित है। इसमें कुल पत्र-सं. ८६ है। यह प्रति अपूर्ण है। इसमें अन्तिम पृष्ठ उपलब्ध नहीं हैं, इस कारण प्रतिलिपिकार, प्रतिलिपिस्थान एवं प्रतिलिपिकालका पता नहीं चलता । ग्रन्थका आरम्भ इस प्रकार हआ है
"ॐ नमो वीतरागाय ॥छ। परमेट्ठिहे पविमलदिट्ठिहे चलण नवेप्पिणु वीरहो........." और इसका अन्त इस प्रकार होता है
"इय सिरिवड्डमाणतित्थयरदेवचरिए पवरगुणरयणणियरभरिए विवुहसिरिसुकइसिरिहरविरइए साहु सिरिणेमिचंदअणुमण्णिए वोरणाहणिव्वाणागम......." इसके बाद का अंश J. एवं D. प्रतिके समान इस प्रतिमें भी अनुपलब्ध है।
प्रस्तुत प्रतिमें स्याहियोंका प्रयोग D. प्रतिके समान ही प्रयुक्त है। यह प्रति अत्यन्त जीर्ण-शीर्ण है तथा उसके अक्षर फैलने लगे हैं। कुछ पत्र पानी खाये हए हैं। इस ग्रन्थके बीचोंबीच समान रूपसे प्रत्येक पत्रके दोनों ओर कलात्मक-पद्धतिसे चौकोर स्थान रिक्त छोड़ा गया है, जो सम्भवतः ग्रन्थको सुव्यवस्थित बनाये रखनेके लिए जिल्दबन्दीके विचारसे खाली रखा गया होगा।
उक्त प्रतिके पत्रोंकी लम्बाई १०.३" एवं चौड़ाई ४.४" है। प्रति पृष्ठमें पंक्ति-संख्या ११-११ और प्रति पंक्तिमें वर्ण-संख्या ४५ से ४७ के बीच में है । ग्रन्थके पत्रोंका रंग मटमैला है।
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