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________________ प्रस्तावना श्रमण महावीरके २५००वें निर्वाण-समारोहके आयोजनकी अग्रिम कल्पना जिन विचारक कर्णधारोंके मनमें उदित हुई वे सचमुच ही साहित्यिक एवं दार्शनिक जगत्की प्रशंसाके पात्र हैं। वर्षों पूर्व उन्होंने विविध पद्धतियोंसे अनेकविध विचार-विमर्श किये, तत्पश्चात् उक्त आयोजनको उन्होंने समयानुसार मूर्तरूप प्रदान कर एक महान् ऐतिहासिक कार्य किया है। इस आयोजनकी अनेक उपलब्धियोंमें-से एक सर्वप्रमुख उपलब्धि यह रही कि उसमें भगवान् महावीरके अद्यावधि अप्रकाशित चरित-ग्रन्थोंके प्रकाशनकी भी योजनाएँ बनायी गयीं। इसके अन्तर्गत कुछ ग्रन्थोंका प्रकाशन तो हो चुका है और कुछका मुद्रण-कार्य चल रहा है । प्रस्तुत 'वड्डमाणचरिउ' उसी योजनाका एक अन्यतम पुष्प है। प्रति-परिचय उक्त 'वड्डमाणचरिउ' की कुल मिलाकर ३ हस्तलिखित प्रतियाँ उपलब्ध हैं, जो राजस्थानके ब्यावर, झालरापाटन और दूणीके जैन शास्त्र-भण्डारोंमें सुरक्षित हैं। उन्हें क्रमशः V.J. तथा D. संज्ञा प्रदान की गयी है । दुर्भाग्यसे ये तीनों प्रतियाँ अपूर्ण हैं । J. ( झालरापाटन ) प्रतिका उत्तरार्द्ध एवं बीच-बीच में भी कुछ अंश अनुपलब्ध हैं। कुछ विशेष कारणोंसे उसकी मूल प्रति तो हमें उपलब्ध नहीं हो सकी, किन्तु उसकी प्रतिलिपि श्रद्धेय अगरचन्द्रजी नाहटाकी महती कृपासे उपलब्ध हो गयी थी, अतः उसी रूपमें उस प्रतिका उपयोग किया गया है। इसके अतिरिक्त उपर्युक्त V. ( ब्यावर ) प्रति तथा D. (दूणी ) प्रति उपलब्ध हो गयीं, जिनका संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार हैD. प्रति ___ प्रस्तुत प्रति अजमेर ( राजस्थान ) के समीपवर्ती दूणी नामक ग्रामके एक जैन-मन्दिर में सुरक्षित है । इसकी कुल पत्र-संख्या ९५ है, जिनमें से ९३ पत्र तो प्राचीन हैं, किन्तु पत्र-संख्या ९४ एवं ९५, नवीन कागजपर मूल एवं आधुनिक लिपिमें लिखकर जोड़ दिये गये हैं। आदर्श प्रतिमें भी अन्तिम पत्र अनुपलब्ध रहनेसे इसमें प्रतिलिपिकार, प्रतिलिपि-स्थान एवं प्रतिलिपि काल आदिके उल्लेख नहीं मिलते । इस प्रतिका प्रारम्भ इस प्रकार हुआ है ॐ नमो वीतरागाय ॥छ। परमेट्ठिह पविमलदिहि चलण नवेप्पिणु वीरहो.......। और अन्त इस प्रकार होता है विबुह सिरि सुकइ सिरिहर विरइए साहु सिरि णेमिचंद अणुमण्णिए वीरणाह णिव्वाणागम........इसके बादका अंश अनुपलब्ध है। प्रस्तुत प्रतिके पत्रोंकी लम्बाई १०.६" तथा चौड़ाई ४.३" है। प्रति पृष्ठमें १०-१० पंक्तियाँ एवं प्रति पंक्तिमें वर्ण-संख्या ३७ से ४३ के मध्य है। यह प्रति अत्यन्त जीर्णावस्थामें है और इसमें लिखावटकी स्याही उकरने एवं फैलने लगी है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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