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४. १३. १४]
हिन्दी अनुवाद प्रभाव ) से समस्त खलजन भी अचिन्तनीय ( उत्तम ) कार्य करने लगते हैं। वैरी-जनोंके लिए अनिष्टकारी तथा बलवान्, चक्रपाणि-हयग्रीव अन्य खेचरेशोंके साथ ( युद्धके लिए ) सन्नद्ध हो चुका है, अतः ( अब ) आप बताइए कि मुझे क्या करणीय है ? (हे मन्त्रियो, अब कुछ भी) छिपाइए मत।"
यह कहकर जब महीपति-प्रजापतिने विराम लिया, तब महामति सुश्रुत (मन्त्री इस प्रकार) १० बोला-"आपकी कृपासे ही हमें विशुद्ध बोधि ( -ज्ञान ) की प्राप्ति हुई है। जिस प्रकार पृथिवीमण्डलपर तेजस्वी सूर्यके उदित होनेपर शतदलवाले कमल-पुष्प भी विकसित हो जाते हैं, उसी प्रकार मैंने जड़ होते हुए भी सज्जनोंको आनन्दित करनेवाले विबुध जनोंके संसर्गसे पटुता प्राप्त की है। जरा-सा पानी तलवारके अग्रभागमें लगकर जब वह करीन्द्रोंका भी दलन कर डालता है, तब क्या वह इन दलित-गिरीन्द्रों ( विद्याधरों ) के सिरोंका दलन नहीं कर डालेगा ?"
घत्ता-"हर्षित चित्तवाले पुरुषका उत्तम आभरण परमार्थ है और वह परामर्श श्रुत ही हो सकता है, अन्य नहीं । हे नृप, सुनो, उस परमार्थ-श्रुतका फल विनय तथा उपशम ( कषायोंकी मन्दता) है, जिसे देवगण भी नमस्कार करते हैं ।।८२।।
मन्त्रिवर सुश्रुत द्वारा राजा प्रजापतिके लिए सामनीति धारण करनेकी सलाह
मलयविलसिया उपशम एवं विनय द्वारा प्रकटित प्रेमसे भूषित पुरुष क्रोध रहित हो जाता है।
तथा मस्तकपर हाथ रखे हुए साधुओं द्वारा वह भक्ति पूर्वक नमस्कृत और संस्तुत रहता है। साधु-समागम मनुष्योंके लिए प्रसन्न करता है। महामतियोंका कहना है कि अनुराग करनेवाले महीपतिकी नीतिज्ञ-जन दासता स्वीकार करनेमें भी नहीं लजाते। यह समझकर नयगुणसे भूषित एवं पवित्र होकर उपशम एवं विनयगुण मत छोड़िए। जिस प्रकार वनमें वनेचर वेगवन्त । हरिणोंको भी शीघ्र ही मार डालते हैं, उसी प्रकार बोलो, कि इस पृथिवी-मण्डल पर किस पुरुषार्थी गुणाकरका गुण स्वयं ही अपने मनोरथकी पूर्ति नहीं कर देता ? अपने मनमें यह समझ लेना चाहिए कि नीतिज्ञों द्वारा कर्कशताकी अपेक्षा कोमलताको ही सुखावह कहा गया है। सूर्य द्वारा पथिवीको तो सन्तप्त किया जाता है, जबकि कमदाकर उससे आहादित होकर रहत मनुष्योंके लिए प्रियवाणीको छोड़कर अन्य कोई दूसरा उत्तम रसाइँ-वशीकरण नहीं कहा जा १० सकता । दुर्लभ मधुर वाणी बोलकर परपोषित होनेपर भी कोयल जन-मनोंको प्रिय होती है।
घत्ता-सभी मनोरथोंका साधन करनेवाली, निरपेक्ष होनेपर भी हृदयमें प्रवेश करनेवाली तथा शत्रओंको रोकने में कारणभूत सामनीतिसे बढ़कर अन्य कोई नीति उत्तम नहीं हो सकती ।।८३॥
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