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________________ ४. ८.१४] हिन्दी अनुवाद विखण्डन करनेवाली तथा पृथिवी-मण्डलकी मण्डन-स्वरूपा अपनी सुपुत्रीको एक मनुष्यके गलेमें ५ लगी हुई देखकर कौन सुमतिवाला (विद्याधर ) अपने मुखको हाथसे न ढंक लेगा तथा पुछकटे गोवत्सके गलेमें पड़ी हुई मणिमालाके समान कौन उसका उपहास नहीं करेगा? यहाँपर उपस्थित सुन्दर वेशवाले समस्त विद्याधरोंमें-से जिसे भी आप आदेश देंगे, वह अपने भ्रूभंग मात्रसे ही नमिराजाके कुलको उसी प्रकार नष्ट कर देगा, जिस प्रकार कि गरुड़ नागको नष्ट कर डालता है। आपके मनमें यमराजके सदृश क्रोधके उत्पन्न हो जानेपर आपका शत्रु एक भी क्षण जीता हुआ १० दिखाई नहीं दे सकता। यह सब समझकर भी गजके समान आचरण करनेवाले हे स्वामिन, आपके साथ ( न मालूम ) उसने क्यों विरोध मोल लिया है ? अथवा ( यही कहा जा सकता है कि ), दुर्भाग्य कालमें मतिवानों एवं गुणवानोंकी बुद्धि भी क्षीण हो जाती है। रणांगणमें सभी बन्धुजनोंके साथ रोककर राजाको नागपाशसे बाँधकर तार-स्वरसे रोते हुए वर-वधू-दोनोंको ही तत्काल ले आऊँगा और इस प्रकार तुम्हारे मनोरथका शीघ्र ही सम्मान करूँगा। पत्ता-शत्रु-विद्याधरोंको मारने हेतु प्रहरणोंको लेकर जब वे (धुमालय आदि विद्याधर) उठे तभी दुर्द्धर हयकन्धर-अश्वग्रीवका हाथ पकड़कर उसका मन्त्री अनुनय-विनयपूर्वक बोला-७७|| विद्याधर राजा हयग्रीवको उसका मन्त्री अकारण ही क्रोध करनेके दुष्प्रभावको समझाता है मलयविलसिया हे प्रभु, अकारण ही क्रोध क्यों कर रहे हैं ? कहिए, आपकी भुवन-गतिको जाननेवाली बुद्धि कहाँ चली गयी?। - मनुष्यके लिए क्रोधको छोड़कर महान् अहितकारी आपत्तिका जनक, एवं हानिकारक अन्य दूसरा कोई कारण नहीं हो सकता। वह तृष्णा बढ़ाता है, धैर्य-गुणको क्षतिग्रस्त करता है, विवेकबुद्धिको नष्ट करता है, मृतकपनेको प्रकट करता है, इन्द्रियोंके साथ-साथ शरीरको भी सन्तप्त ५ करता है, विषके सन्तापकी तरह ही वह क्रोध-विष भी अति प्रसरणशील है। वह क्रोध पित्त-ज्वरके समान माना गया है तथा वह स्वाभिमान ( अथवा गौरवशीलता) का विखण्डन करनेवाला और दुःखोंका घर है। जो व्यक्ति पग-पगपर अकारण ही क्रोध करता है और हदयमें अहनिश ही सन्तप्त रहता है. उस व्यक्तिके साथ उसके आप्तजन भी प्रकट रूपमें समता एवं मित्रता नहीं रखना चाहते। ( ठीक ही कहा गया है कि ) मन्द-मन्द वायसे उल्लसि भारसे युक्त विषवृक्षका क्या द्विरेफ-भ्रमर-गण सेवन करते हैं ? (अन्तर्बाह्य-) सौन्दर्य ( अथवा अभिवांछित कार्य-सिद्धिकी ) रक्षा करनेवाले ( अन्धी-) आँखोंके लिए सिद्धांजन स्वरूप तथा लक्ष्मीरूपी वृद्धिके लिए जलधाराका (कार्य) क्षमा-गुण ही ( कर सकता ) है तथा वही क्षमागुण मित्रों एवं बन्धुजनोंके हर्षको भी प्रकट करता है, ऐसा विवेकशील सत्पुरुषोंने कहा है। जो प्रभु अपने विक्रमसे क्रोध-पूर्वक शत्रुका विदारण करता है, उसे भी मरनेपर ( क्रोधके कारण १५ ही ) कोई श्रेय नहीं मिलता। घत्ता-जिस प्रकार मृगराज-सिंह नभमें गरज-गरजकर जाते हुए मेघोंपर उछलकूद करता है, तब क्या वह अकारण ही अपने शरीरको दारुण दुख देकर क्या अपना अहित नहीं करता? ||७८|| १२ गित पम्पाक १० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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