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________________ सन्धि ४ ज्वलनजटी राजा प्रजापति के यहाँ जाकर उनसे भेंट करता है अति सरस, ( प्रतीक्षा में ) कुछ दिनोंके व्यतीत हो जानेपर गुणों की खान उस 'इन्दु' ( नामक दूत ) के वचन सुनकर शुभ गुणों का भाजन वह ज्वलनजटी भी किसी समय ( राजा प्रजापति से मिलने हेतु ) चला । मलयविलसिया और विशेष गणों द्वारा सेवित होकर तथा अपनी सेनाओं द्वारा परिचरित रहकर वह ५ गुणवान् ज्वलनी एक विपुल वनमें ठहरा । राजा प्रजापति भी ज्वलनजटीके आगमनका वृत्त जानकर उसके दर्शनोंके निमित्त इस प्रकार निकला मानो वह कोई दिग्गज ( - दिक्पाल ) ही हो । उसके साथ उसके दायीं और बायीं ओर वन्दीजनों द्वारा प्रशंसित उसके दोनों पुत्र सुशोभित थे । अनेक प्रकारके वाहनों पर आरूढ़ तथा रत्नाभरणोंको धारण किये हुए सुन्दर वेशवाले राजाओं द्वारा परिचरित होता हुआ १० वह राजा प्रजापति हषं करता हुआ शीघ्र ही राज-वनके मध्य में पहुँचा । अपने विद्याबलसे विरचित मनोहर एवं स्फुरायमान मणि-समूहोंसे देदीप्यमान श्रेष्ठ विद्याधर-महिलाओंके नेत्रों एवं चित्तके लिए मोहित करनेवाले विद्याधरों एवं मनुष्यों के साथ वह सन्तुष्ट खेचरेश ज्वलनजटी उठा और ससम्मान उप नरेन्द्र प्रजापतिके दर्शन किये । अपना यान छोड़कर तत्काल ही प्रशस्त स्वकीय परम्पराओं पूर्वक तथा निकटस्थ प्रियतम ( विश्वस्त) जनोंका हस्तावलम्बन करके परस्परमें सम्मुख होकर, प्रणयपूर्ण नेत्रोंसे जोहकर अत्यन्त हर्षपूर्वक दीर्घबाहु उन दोनों नरश्रेष्ठ एवं नभचर नाथने ( परस्पर में ) आलिंगनरूपी अमृत रसकी धारासे समधीरूपी सम्बन्धका सिंचन किया। जीर्णं वृक्ष जिस प्रकार अंकुरित होकर सुशोभित होता है, उसी प्रकार बाजूबन्दकी मनमोहक मणि-किरणोंसे वे दोनों राजा (आलिंगनके समय ) सुशोभित हो रहे थे । ( अर्थात् प्रजापति एवं ज्वलनजटी दोनोंका सम्बन्ध पुराना पड़ गया था, किन्तु उन दोनों ने मिलकर गाढ़ालिंगनके अमृतजलसे उसको सींचा, जिससे वह फिर हराभरा हो गया ) । २० धत्ता - प्रवरमति नृपति ( - प्रजापति ) के लिए दुर्लक्ष्य एवं सुखोंके जनक पिता ( राजा ज्वलनजटी ) द्वारा अनकहे कटाक्षों द्वारा ( मनका भाव समझकर ) अर्ककीर्तिने तत्काल ही ( अपने ससुर प्रजापतिको ) सिर झुकाकर प्रणाम किया ॥ ७१ ॥ २ प्रजापति नरेश द्वारा ज्वलनजटीका भावभीना स्वागत मलय विलसिया महान् कुल एवं महान् बलवालोंका अपवर्गं प्रदान करनेवाला विनयगुण नैसर्गिक ही होता है । ११ Jain Education International For Private & Personal Use Only १५ २५ www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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