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३. २९. १४]
हिन्दी अनुवाद
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त्रिपृष्ठ कोटिशिला नामक पर्वतको सहजमें ही उठा लेता है ऐरावत हाथीकी सूड़को भी जीत लेनेवाले अपने हाथोंसे लीलापूर्वक कोटिशिलाको भी ऊँचा उठाकर जब ( उस त्रिपृष्ठने ) अपने भुजदण्डको ऊपरकी ओर फैलाया, तभी देवोंने साधुकार किया। इस प्रकार अपने भुजयुगलकी वीरताको प्रकट कर वह (त्रिपृष्ठ ) पुनः अपने नगरकी ओर लौटा। अनुरागसे भरकर चन्द्रमुखियों द्वारा गाये जाते हुए अपने यशोगानको सुनता हुआ परमानन्द पूर्वक वह अपने नरनाथ पिताके उस भवन में प्रविष्ट हआ. जिसके शिखर मेघोंको प्रहत कर रहे थे। सामन्तों एवं मन्त्रिगणोंने उसे देखते ही विनयगुणसे अलंकृत उस त्रिपृष्ठको अपने भालपट्टपर दोनों हाथ रखकर मुकुटमें लगे हुए मणियोंसे भास्वर सिरको झुकाकर प्रणाम किया।
नरनाथ प्रजापतिने हर्षाचकणोंको दिखाकर सर्वप्रथम नेत्रों द्वारा आलिंगन कर पुनः पुत्रके पराक्रमको जानकर उसका अपनी दोनों भुजाओंसे गाढालिंगन कर लिया। एक बार फिर सुरसीमन्तिनियोंके मनको हरण करनेवाले सुन्दर अपने दोनों ही पुत्रोंका उसने आलिंगन कर लिया। १० फिर उस प्रभुकी आज्ञासे वे दोनों ही प्रभुके सिंहासनके पास हर्षित मनसे प्रणाम कर बैठ गये। राजाने बलभद्र ( विजय ) को बुलाकर उससे अपने अनुज ( त्रिपृष्ठ ) मनोहर विक्रम-प्राप्तिके अनुभव पूछे। तब दुरि वैरीजनोंके बाणोंसे अजेय, महान् तेजस्वी वासुदेव ( त्रिपृष्ठ ) वह सब सुनकर भी चुपचाप बैठा रहा। ठीक ही है, महापुरुष अपनी स्तुति अथवा निन्दा सुनकर हर्ष अथवा विषादसे युक्त नहीं होते।
__ घत्ता-अपने दोनों बलवान् पुत्रों ( विजय एवं त्रिपृष्ठ ) के साथ वह राजा (प्रजापति ) प्रजाकी सुरक्षा कर रहा था मानो कर द्वारा पृथ्वीका लालन-पालन करता हुआ वह हर्षरूपी धनकी धाराएँ ही बरसा रहा हो ॥६७।।
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विद्याधर राजा ज्वलनजटी अपने चरको प्रजापतिनरेशके दरबार में भेजता है
इसी बीच हाथमें कांचनमय वेत्रलता ( दण्ड ) धारण किये हुए द्वारपालने राजाके समीप आकर भक्तिपूर्वक सिर झुकाकर उसे तत्काल ही विज्ञप्ति दी कि-"हे देव, देवोंके चित्तका आहरण करनेवाला कोई (आगन्तुक ) आकाश-मार्गसे आकर आपके दरवाजेपर बैठा है। यह तेजस्वी आपके दर्शन करना चाहता है।" यह सुनकर शत्रुरूपी हरिणोंके लिए सिंहके समान उस राजा (प्रजापति ) ने द्वारपालसे कहा-"उसे शीघ्र ही भेजो, देर मत करो।" प्रभुकी आज्ञासे ५ वह द्वारपाल भी वेगपूर्वक गया और उस आगन्तुकको वहाँ भेज दिया। सभासद् आश्चर्यचकित होकर तथा स्थिर-मनसे उसे देखते ही रह गये। आगन्तुक भी नमस्कार कर उस स्थानपर बैठ गया जिसे धरणीश्वर प्रजापतिने स्वयं ही उसे बतलाया था। नरेश्वरने उस चरको विश्रान्त
कर उससे ( इस प्रकार ) वत्तान्त पछा-"हे सौम्य भाई. तम कौन हो, कहाँसे आये हो, तुम्हारा रा निवासस्थान कहाँ है और किस कार्यसे यहाँ आये हो ?" राजा द्वारा पूछे जानेपर उस १० नवागन्तुकने अपने माथेपर हाथ रखकर तथा नमस्कार कर उत्तर दिया-"इसी देश में गगनचरोंसे सुन्दर विजयाचल नामक एक पर्वत है जो रत्नोंकी किरणोंसे विभूषित उत्तर एवं दक्षिण इन दो श्रेणियोंसे युक्त है।
घत्ता-अत्यन्त रमणीक दक्षिण श्रेणीमें रथनूपुर नामक नगरमें राज्य करता हुआ निर्मल चित्तवाला एक विद्याधर राजा ज्वलनजटी आपको स्मरण करता है" ॥६८॥
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