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________________ ३. २०.५] हिन्दी अनुवाद १८ अलका नगरीके विद्याधर राजा मोरकण्ठका वर्णन और उधर, वह विशाखनन्दि भी जिनवरके तपका आचरण कर स्वरूपवान् देव हुआ। इसी पृथिवी-मण्डलपर सुमेरु पर्वतसे समृद्ध जम्बू नामक सुप्रसिद्ध द्वीप है, जो छह वर्षघर-पर्वतोंसे विभक्त होनेके कारण सात क्षेत्रोंसे संयुक्त होकर सुशोभित है। उन क्षेत्रों में से ज्या सहित धनुष तुल्य दक्षिण-दिशामें भारतवर्ष (नामक क्षेत्र) है, जिसके मध्यमें पूर्व एवं अपर दिशाओं में विस्तृत, ऊँचाईमें पचीस योजन, पृथुलता ( मोटाई ) में उससे द्विगुणित प्रमाणवाला, मेखला- ५ श्रेणीके वनोसे रमणीक, रौप्यवर्णसे समुज्ज्वल वदनवाला, 'विजयाद्ध' इस नामसे सुप्रसिद्ध एक महीधर सुशोभित है। उसकी उत्तर-श्रेणीमें विख्यात अलका नामकी एक समृद्ध नगरी है, जहाँ परोपकार करनेमें प्रमुदित रहनेवाले विद्याधर लोग निवास करते हैं। ____घत्ता-उस नगरीका स्वामी, आकाशगामी, विद्याधर-समूहसे वेष्टित, सैकड़ों गुणोंसे सुशोभित तथा जगत्में प्रकट यशवाला मोरकण्ठ नामका एक विद्याधर राजा राज्य करता था॥५७॥ १० विशाखनन्दिका जीव चयकर कनकमालाको कुक्षिसे अश्वग्रीव नामक पुत्रके रूपमें उत्पन्न हुआ अपने शौर्यगुणों द्वारा तीनों लोकोंमें विख्यात उस विद्याधर राजा मोरकण्ठकी समस्त अन्तःपुरमें प्रधान कनकमाला नामकी पट्टरानी थी। इधर (विशाखनन्दिका जीव) वह देव चयकर कनकमालाको कुक्षिमें अवतरित हुआ। तदनन्तर उस गर्भके अनुभाव विशेषसे वह रानी मनुष्यका वेश धारणकर आयुध-क्रीड़ाएँ करती रहती थी, वह तीनों लोकोंको तृणके समान गिनती थी तथा दर्पण छोडकर तलवारमें अपना मख देखती थी। इस प्रकार मनोरथोंको परिपूर्ण कर महामणियोंकी ५ खानि स्वरूपा उस रानी कनकमालाने पुत्र-प्रसव किया। खेचर राज मोरकण्ठने उसके शरीरमें अर्धचक्रीके स्पष्ट लक्षण देखकर तत्क्षण ही अभिराम उत्सवका आयोजन कर उसका नाम 'अश्वग्रीव' रखा। घत्ता-नेत्रोंको आनन्द देनेवाला वह राजनन्दन अपने कुलरूपी आकाशके प्रांगणमें सुन्दर किरणोंवाले बालचन्द्रके समान समस्त कलाओंका संग्रह करता हुआ दिन प्रतिदिन बढ़ने लगा ॥५८|| १० २० कुमार अश्वग्रोवको देवों द्वारा पाँच रत्न प्राप्त हुए जिसके तारुण्यकी तरंगें स्फुरायमान हो रही थीं, तथा रूप-रेख, एवं गुणोंके रंगमें अनुपम था, ऐसे उस कुमार अश्वग्रीवको समस्त कलाओंने स्वयं ही वरण कर लिया था। वे श्रेष्ठ कलाएँ निरन्तर रण-रण कर आनन्द करती रहती थीं। अन्य किसी एक दिन वह कुमार गुफा-गृहमें ध्यानस्थ होकर बैठा। जब वह निश्चलमनसे ५ जाप कर रहा था, तभी उसे विद्या-समूह प्रत्यक्ष हो गया। विद्याएँ सिद्ध होनेपर वह सुमेरु पर्वतपर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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