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________________ ३. १७. १२ ] हिन्दी अनुवाद १६ विश्वनन्दि और विशाखभूति द्वारा मुनि दीक्षा तथा विशाखनन्दिकी राज्यलक्ष्मीका अन्त उस विशाखनन्दिको अभयदान देकर पवित्र चित्तसे उसने जिनवरका चिन्तन किया ( और विचार किया कि ) " मैं यहाँ अप्रसन्न मुख हूँ, क्योंकि पुरजनोंके द्वारा मैं ( घृणित दृष्टिसे ) देखा जाऊँगा । मैं शिवकी कामना करनेवाले विशाखभूतिके निवासके सम्मुख कैसे खड़ा हो पाऊँगा ?" इस प्रकार अपने चित्तमें कल्पना करके तथा लज्जित होकर जीर्णं तृणके समान दूरसे ही राज्यको त्यागकर लोकापवादके भयसे डरा हुआ चित्तवाला वह युवराज विश्वनन्दि तपस्या हेतु अपने ५ घरसे निकल गया । इधर वह नरपति (विशाखभूति ) भी अपने मनको जीतकर तथा अपने पुत्र विशाखनन्दिको राज्य देकर उस विश्वनन्दिके पीछे-पीछे लग गया। सिरपर दोनों हाथ चढ़ाकर सम्भूत नामक मुनीश्वरके चरणोंमें माथा झुकाकर दोनों ही जनोंने दीक्षा ग्रहण कर ली। उसने राजाके साथ हपूर्वक मुनि - शिक्षा ग्रहण की । इसी बीच में मनोरम विक्रम पदों एवं दैवसे परित्यक्त उस लक्ष्मणा पुत्र विशाखनन्दिसे उत्तराधिकारमें मिली हुई राज्यरूपी लक्ष्मीको जीत लिया गया तथा उसे ( राज्य से ) निकाल बाहर कर दिया गया । ६३ घत्ता - दूरसे ही लोग उसे हताश करते रहते थे । विकसित मुख होकर लोग उसे अपने हाथोंकी अँगुलियोंसे दूसरोंको दिखाते थे, तथा कहते रहते थे "कि यही वह बेचारा राजा विशाखनन्दि है । " ॥५५॥ १७ मथुरा नगरीमें एक गाय द्वारा विश्वनन्दिके शरीरको घायल देखकर विशाखनन्दिद्वारा उपहास, विश्वनन्दिका निदान बाँधना Jain Education International इसी बीच में उग्रतपसे तप्त तथा मासोपवास- विधिसे क्षीण गात्रवाले विश्वनन्दि मुनि भिक्षाके निमित्त उत्तंग भवनोंवाले मथुरा नामक नगर में प्रविष्ट हुए । प्रजाजनोंने मार्ग में नन्दिनी - गौके सींगों द्वारा उनके शरीरको घुन घुनकर घायल करते हुए देखा । वेश्याके सौधतलमें स्थित उस अभिमानी, कुलक्रम और न्यायमार्ग से च्युत विशाखनन्दीने यह देखकर ( उसका ) उपहास करते हुए कहा - " ( अब ) तेरा वह बल कहाँ चला गया, जिससे कि तूने हमारी सेना सहित उस दुर्गको वेग-पूर्वक जीत लिया था, जिस बलके द्वारा तूने शिलामय स्तम्भको उखाड़ डाला था, तथा जिससे कैंथके पेड़को गगनरूपी आँगन में फेंक दिया था ।" विशाखनन्दिका यह कथन सुनकर विश्वनन्दिने उसकी ओर निहारकर उसके समीप जाकर तथा क्षमाणका परित्याग कर ( कहा ) – “यदि मेरे तपका कोई विशिष्ट फल हो, तो समरांगणको रचाकर निश्चय ही अनिष्टकारी इस वैरीको मारूंगा ।" इस प्रकार निश्चयकर उसने अपने मनमें निदान बाँधा | घत्ता - वह मगधेश्वर ( विश्वनन्दि ) देहसे विमुक्त होकर सोलह-सागरकी आयुवाले महाशुक्र नामक स्वर्ग में तेज सहित एवं सुन्दर कायवाला देव हुआ ||५६ ॥ For Private & Personal Use Only १० १५ ५ १० www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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