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२. १९. १३]
हिन्दी अनुवाद
१८ वह 'अग्निशिख' नामसे प्रसिद्ध हुआ। वह पुनः मरकर सानत्कुमारदेव हुआ तथा वहाँसे
चयकर मन्दिरपुरके निवासी विप्रगौतमका अग्निमित्र नामक पुत्र हुआ। (जब ) ये दोनों ( अग्निभूति एवं गौतमी) सुख-भोग कर रहे थे तथा अपने विनय गुणसे सज्जनोंका मनोरंजन कर रहे थे तभी उनके यहाँ आयुके क्षय होनेपर स्वर्गावास छोड़कर सुरसुन्दरियोंके साथ रमण करनेवाला वह ( पुष्यमित्रका जीव) ईशानदेव स्वर्गसे चयकर अपने गणसमूह द्वारा बन्धुजनोंको आनन्दित करनेवाले पुत्रके रूपमें उत्पन्न हुआ। अपने पिता (अग्निभूति ) के द्वारा वह 'अग्निशिख' इस नामसे पुकारा जाता था। वह अग्निशिख दुर्जनोंके कहे गये वचनोंका ५ खण्डन करनेवाला था। पुनः वह चिरकाल तक परिव्राजक-तप कर पंचत्वको प्राप्त हुआ और सनत्कुमार स्वर्गमें स्फुरायमान भूषणों की आभासे भास्वर एक देव हुआ। वहाँ उस महामतिकी आयु सात-सागर प्रमाण थी। वह गगनरूपी आंगनमें मनवांछित सुरत-गतिको भोगता था।
इस संसारमें मन्दिरपुर नामका एक सुन्दर नगर है, जहाँ कामिनी-जनोंके पैरोंके नूपुर शब्दायमान रहते हैं, जहाँ मन्दिरोंके अग्रभागमें लगी हुई ध्वज-पंक्तियाँ रविको ढंक देती थीं। वहाँ १० बलि-विधानसे होम किया जाता था। वहाँ गौतम नामक एक द्विजश्रेष्ठ हुआ, जो अपने मतके स्वरूपका जानकार था । शरीरके लावण्य एवं सौन्दर्यसे जगत्को मोह लेनेवाली उसकी कौशिकी नामकी कामिनी थी।
घत्ता-उन दोनोंके यहाँ वह ( सनत्कुमारदेव चयकर ) अग्निमित्र नामके पुत्रके रूपमें उत्पन्न हुआ। वह ऐसा प्रतीत होता था, मानो रतिका दूत ही हो। वह द्विजश्रेष्ठ शास्त्रोंका रसिक १५ था। उसके पिता ( गौतम ) ने उससे कहा कि-"हे अग्निमित्र, लोकमें अपना तेज प्रकाशित करो" ॥३५॥
मरीचि भवान्तर—वह अग्निमित्र मरकर माहेन्द्रदेव तथा वहाँसे पुनः चयकर वह शक्तिवन्तपुरके
विप्र संलंकायनका भारद्वाज नामक पुत्र हुआ। पुनः मरकर वह माहेन्द्रदेव हुआ।
वह अग्निमित्र घरमें निवास करते हुए भी रति-भावनाका निवारण कर नारायण-शासनके मतको धारण कर, मन ( की वृत्तियों)के प्रसारको जीतकर, तप-ग्रहण कर, चूला ( शिखा-जटा) सहित त्रिदण्ड ( त्रिशूल ) धारण कर, परिव्राजक रूपसे भ्रमण कर दीर्घकाल तक मिथ्यात्वमें रमकर तथा मरकर माहेन्द्र-स्वर्गमें सात-सागरकी आयुवाला सुन्दर कान्तिवाला देव हुआ। वहाँपर वह देवियोंके साथ सुखपूर्वक खूब रमकर पुण्यक्षय होनेके कारण मृत्युको प्राप्त हुआ।
शक्तिवन्तपुरमें दूसरोंके मनका हरण करनेवाला कुसुम, पत्र, कुश एवं पत्तीको धारण करनेवाला तथा अपने मनमें नारायणका ध्यान करनेवाला संलंकायन नामका एक विप्र निवास करता था। उसकी प्रिया का नाम मन्दिरा था। इन्हींके यहाँ वह माहेन्द्र-स्वर्गका देव ( अग्निमित्र का जीव ) चयकर पुत्र रूपमें उत्पन्न हुआ। वह गुणोंका मन्दिर तथा आगम-भेदोंका ज्ञाता था। अपने मुखसे तो वह कमलको जीतनेवाला ही था। पिताने उस पुत्रके शरीरको गंगाजलसे प्रक्षालित १० कर उसका नाम 'भारद्वाज' रखा।
घत्ता-वह भारद्वाज ( अग्निमित्रका जीव) पुनः एक विख्यात परिव्राजक हुआ। चिरकाल तक तप करके, मरकर पुनः मणिमय विमानवाले मनोहर माहेन्द्र-स्वर्गमें देव हुआ ॥३६।।
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