SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३९ १. १७. १७] हिन्दी अनुवाद घत्ता-तप धारण करने में परिव्राजक उस (मरीचि) ने कुनयोंका विस्तार करके सिर झुकाझुकाकर नमस्कार करनेवाले कपिल आदि शिष्योंके साथ जड़-जनोंको अनुयायी बनाकर सांख्यमत- १५ का प्रकाशन किया ॥३२।। मरीचि भवान्तर वर्णन-कोशलपुरीमें कपिल भूदेव ब्राह्मणके यहाँ जटिल नामक विद्वान् पुत्र तथा वहाँसे मरकर सौधर्मदेवके रूप में उत्पन्न __ कुमतमार्गमें जड़जनोंको विनिवेशित कर उन्हें पचीस-तत्त्वोंका उपदेश किया और चिरकाल तक परिव्राजक-तप करके उस मरीचिने मिथ्यात्वपूर्वक प्राण छोड़े और पाँचवें कल्पमें सुधाशी-देव हुआ। वह रूप-सौन्दर्यमें अनुपम था। उसकी उपमा किससे दें ? वहाँ उसकी जीवित आयु दस सागर प्रमाण थी। वह सहज सुन्दर आभरणोंसे प्रदीप्त था। जीवनके अन्तमें वह कृतान्त (यमराज) के द्वारा निधनको प्राप्त हुआ। तीनों लोकोंमें एक अद्वितीय भवनके समान कोशला नामकी नगरी थी, जहाँ चपल स्वभावी कपिल भूदेव नामक ब्राह्मण निवास करता था। उसकी यज्ञादिकसे परिभूषित गात्रवाली " एवं अनुरागिणी यज्ञसेना नामकी कान्ता थी। उनके यहाँ शास्त्रों एवं उनके अर्थों में विलक्षण विद्वान तथा सर्वांगीण शारीरिक लक्षणोंसे युक्त जटिल नामका पुत्र उत्पन्न हुआ, जो अग्निशिखाके समान दीप्त था तथा जो मिथ्यादृष्टियोंके साथ ही वार्तालाप करता था। अन्त समयमें (वह) भगवती १० दीक्षा ग्रहण कर तथा उसका पालन कर कष्ट पूर्वक मरा, और घत्ता-मणिमय हयं-विमानवाले सौधर्म-स्वर्गमें दो सागरकी जीवित आयुका धारी, अमितद्युतिसे समन्वित, देवों द्वारा मान्य, सुन्दर एवं उन्नत कन्धों वाला देव हुआ ॥३३॥ १७ वह सौधर्मदेव भारद्वाजके पुत्र पुष्यमित्र तथा उसके बाद ईशानदेव तथा वहाँसे चयकर श्वेता नगरीमें अग्निभूति ब्राह्मणके यहाँ उत्पन्न हुआ पुष्प एवं फलवाले विविध-वनोंसे सुशोभित तथा मनमोहक स्थूणागार नामक एक ग्राम था, जहाँ पृथिवीपर विख्यात तथा अपने कुलका भूषण भारद्वाज नामक एक विप्र निवास करता था। उसकी मनोहारी एवं स्वर्ण-कलशके सदृश पयोधरोंवाली पुष्पमित्रा नामकी एक कान्ता थी, जो दोनों पिता एवं पति पक्षोंसे सुशोभित एवं निष्कलंक तथा हंसिनीके समान हर्षपूर्वक चलने स्वर कान्तिवाला वह ( मरीचिका जीव-) देव स्वर्गसे चयकर उनके पुत्र रूपमें उत्पन्न ५ हुआ । उसका नाम 'पुष्पमित्र' रखा गया। वह मनमोहक तथा मानिनी जनोंके मनकी वृत्तिका निरोध करनेवाला था। अपने निलय ( भवन )में आये हुए एक परिव्राजकके उपदेशसे स्वर्ग-सुखकी अपने मनमें कामना कर बालहठके कारण उसने बालदीक्षा ग्रहण कर ली और (इस प्रकार) समय व्यतीत करने लगा। वह चिरकालतक तप करता रहा। फिर मरकर २५ तत्त्वोंकी भावना भाकर ईशान-स्वर्गमें पुष्पमालासे अलंकृत देहधारी देव हुआ। वहाँ उसकी आयु दो सागर प्रमाण थी। १० वहाँ वह अप्सराओं द्वारा रचाये गये सुहावने नृत्योंमें मन लगाने लगा। घत्ता-वह ( मरीचिका जीव ) ईशान देव, स्वर्गसे कणके समान पतित हुआ। श्वेता नामकी नगरीमें अग्निभूति नामका द्विज रहता था, जो अपनी गौतमी नामकी प्रियासे युक्त, षट्कर्मोको मानता हुआ प्रभुताको प्राप्त था। ॥३४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy