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२.१५.१२ ]
हिन्दी अनुवाद
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चक्रवर्ती भरत की पट्टरानी धारिणीको मरीचि नामक पुत्र की प्राप्ति
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उत्तम दिनमें उस (धारिणी) ने पुत्रको जन्म दिया, जिस कारण घर-घरमें प्रांगण- प्रांगण में तूर एवं तुरही बजने लगे । पिता (भरत) ने उसका नाम 'मरीचि' रखा। पुनः ( सम्यक् प्रकार ) परिपालित वह (मरीचि) बड़ा हुआ । नृत्य करती हुई सुरेन्द्र प्रिया - नीलांजनाका मरण तथा भवमें होनेवाले महान् दुखोंके विस्तरणको स्वयं ही देखकर जिस (ऋषभदेव) ने इस जगत् को चपल (अनित्य) समझा और अपने-अपने घर तथा नगरको अपनी चतुरंगिणी सेनाके साथ तत्काल ही तृण समान जानकर छोड़ दिया । श्रेष्ठ ज्ञान रूपी आभूषण से स्फुरायमान वे पुरुदेव ऋषभ जिन वैराग्यको प्राप्त हुए । उन्होंने कांचन एवं तृणमें समभाव रखा । देवर्षि लौकान्तिक देवोंने आकर उन्हें सम्बोधा, तब नरनाथ ( ऋषभ ) निकाय (शिविका ) में सुशोभित हुए, उन्हें विद्याधर एवं नागदेवोंने लक्षित किया। वे (ऋषभ) भी सिद्धोंका स्मरण कर दीक्षित हो गये। उन जिनेश्वर ऋषभके साथ गुणोंमें निपुण मरीचि भी संयमधारी हो गया । दुःखकारी परीषहोंकी पीड़ासे १० घबराकर वह मरीचि सहसा ही कुभावको प्राप्त हो गया। जो जिन दीक्षा धारण करता है, वह तो हृदयसे महान् होता है, वह भव-भोगोंसे विरक्त रहता है । किन्तु भीरु जन उस दीक्षाको धारण नहीं कर सकते । अतः जिनेन्द्र द्वारा प्रेरित उस मरीचिने पूर्वकृत पापोंको क्षय करनेवाले तपको छोड़ दिया ।
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घत्ता - अन्य किसी एक दिन सूर्य-बोधित स्वरमें (नासिका के बायें छिद्र से वायुका चलना १५ सूर्य-स्वर कहलाता है) मरीचि नामधारी उस प्रभुने देवोंके लिए मनोहर लगने वाले कैलास पर्वत पर शिवपुर का ( नया ) पथ (सांख्यमत) प्रकट किया ||३१||
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मरीचि द्वारा सांख्यमतकी स्थापना
तीनों लोकोंके अधिपति स्वामी आदि जिनेश्वर जब स्वर्ण एवं तृणमें समदृष्टिकी भावना भा रहे थे, तभी भरतेशने जाकर उनके दर्शन किये तथा धर्मकी ध्वजाके समान उनसे पूछानाभिरेन्द्र के सुपुत्र परमेश्वर, बताइए कि तीर्थंकर चक्रधारी तथा व्योमचर कितने होंगे ?" तब लम्बबाहु ( आदि जिन ) ने उस (भरतेश) से कहा - " (आगे) तीन सहित बीस अर्थात् तेईस प्रवर तीर्थंकर (और) होंगे और आठ तथा तीन अर्थात् ग्यारह चक्रधर जानो ।” चक्रधर ( भरतेश ) ५ ने दुख-समूह रूपी ऋणके नाशक जिनेन्द्रको प्रणाम कर उनसे पुनः पूछा - "और, यहाँ आपकी मनोहारी शरण में ( तप करनेवाले) जीवोंमें भी कोई (तीर्थंकर) होनेवाला है अथवा नहीं ?" तब ऋषभदेवने पुनः उत्तर दिया – “तुम्हारा पुत्र मरीचि अभी तो धर्मंसे च्युत होकर मरेगा, जियेगा किन्तु आगे जाकर मिथ्वात्वसे स्खलित होकर तथा भवको क्षयकर चौबीसवाँ तीर्थंकर होगा । कपिल आदि शिष्यों का वह गुरु बनेगा, जो उसकी अविधि ( कुपथ ) का लोकमें प्रचार करेंगे ।” १० "जिनेन्द्रका कथन सुनकर मरीचि हर्षित होकर वहाँसे तत्काल निकला । 'जिनेन्द्र कथन कभी मिथ्या नहीं होते' अपने मनमें यह निश्चय कर उस मरीचिने हर्षं पूर्वक
तत्काल ही नया तीर्थं
स्थापित किया तथा
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