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________________ २. १३. १२ ] हिन्दी अनुवाद धत्ता - उसी विनीता नगरीमें पृथिवीके भोक्ता, नरपति ऋषभनाथ हुए जो त्रिविधज्ञानधारी, परमेश्वर, प्रथम तीर्थंकर तथा त्रिजगत् के जीवरूपी कमलोंके लिए सूर्य-समान थे ||२८|| ३५ १२ ऋषभदेव तथा उनके पुत्र भरत चक्रवर्तीका वर्णन जिस ( ऋषभदेव ) के गर्भावतरणके समय इतने देवोंका आगमन हुआ कि वे गगनतलमें नहीं समाये, जिसके जन्म लेनेके समय त्रिभुवन कम्पायमान हो गया, सुरेन्द्रों द्वारा जय-जयकार किया गया, जिसके जन्म लेने मात्रसे ही देवेन्द्रोंने आनन्द-पूर्वक मुकुलित हस्त-युगलसे परस्परमें Ear-मुक्की पूर्वक, गम्भीर शब्दवाले दुन्दुभिके शब्दों पूर्वक, हार्दिक भक्ति भावसे युक्त होकर, मेरु शिखर पर ले जाकर क्षीरसागरकी जलधारासे अभिषेक कराया ऐसे वे ऋषभदेव जन्मसे ही ति श्रुत एवं अवधिज्ञानसे युक्त थे, जो षट्कर्मोंके निरूपण में निपुण एवं स्वयम्भू थे, जो मनोहारी रत्न - किरणोंके समान स्फुरायमान कल्पवृक्षोंके उच्छिन्न हो जानेपर व्याकुल-जनोंके लिए करुणावतार अथवा मानो अभिनव कल्पद्रुमके रूपमें ही अवतरे थे । उन ऋषभदेवके पुष्पोंके समान अलंकृत केशवाला भरत नामका पुत्र उत्पन्न हुआ, जो पृथ्वी के समस्त छह-खण्डोंका स्वामी था तथा जो मदसे आकर्षित होकर लिपटे हुए भ्रमरोंसे युक्त १० मदोन्मत्त हाथी की गति के समान गतिवाला था । घत्ता - जिसके हाथ चक्रसे अलंकृत थे, जो पृथिवीका पालन करता था, जो समस्त चक्रवतियोंमें प्रथम, प्रधान, देवोपम एवं मणियोंसे मण्डित मुकुटधारी चक्रवर्ती ( सम्राट् ) था ||२९|| १३ चक्रवर्ती भरतका दिग्विजय वर्णन चौदह रत्नोंसे समन्वित नवनिधियाँ जिसके राजभवनमें आकर धैर्यपूर्वक विलास करती थीं, जिसकी दिग्विजयमें महान् मतंगजोंवाले स्यन्दन ( रथ ), भट - समूह और घोड़ोंके भारको सहन न कर पानेसे ही मानो धन-धान्यदायिनी मेदिनी धूलिके बहाने आकाशमें चढ़ रही थी। जिसके भय से कम्पित सुन्दर विग्रह करनेवाला मागध ( देव ) स्तुति करता हुआ वहाँ तुरन्त आ पहुँचा, जिसे सुनकर नराधिप वरतनु सेवा करके तथा शुभधन देकर वापस गया। जिसका निर्मल यश प्रकट हुआ, जिसने उपहास करना छोड़ दिया, किन्तु जिसकी उत्तम हँसीसे सभी उसके वशमें हो गये, जिसका गंगा एवं सिन्धु नदियोंसे अभिषेक किया गया तथा जो धनदके उपवनसे लाये गये कुसुमसे अर्चित किया गया, जिसने वैताढ्यके गुहा-मुखको उघाड़ा, भिड़ते हुए म्लेच्छाधिपको वश में किया, जिसने स्फुरायमान आभरणोंसे सुशोभित णट्टमालि देवको अपने पैरोंमें झुकाया तथा विद्याधराधिपति सम्राट् नमि एवं विनमिके कुलरूपी चन्द्रमाको जिसने सुशोभित किया Jain Education International १५ For Private & Personal Use Only ५ १० घत्ता - उस भरतकी गृहिणीका नाम धारिणी था, जो गुण-समूहको धारण करनेवाली थी । उसके गर्भ में शबरके जीववाला वह देव जो कि रुचिपूर्वक देवांगनाओं द्वारा स्फुरायमान चँवर दुराये जानेवाला था, स्वर्गसे अवतरा ॥ ३० ॥ ५ www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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