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________________ २.११.१०] हिन्दी अनुवाद भवान्तर वर्णन-(१) पुण्डरीकिणीपुरका पुरूरवा शबर ___ इस जम्बूद्वीप-स्थित विदेह क्षेत्रके प्रांगणमें विविध प्रकारके मेघोंकी वर्षा होती रहती है। वहींपर पुष्कलावती नामका एक विशाल देश है, जहाँ महिलाएँ मंगलगान गाती रहती हैं। उस देशमें जलवाहिनी सीतानदीके उत्तर-तटपर अगणित गोधनोंसे मण्डित महीतलपर विशाल पुण्डरीकिणी नामकी नगरी बसी है, जहाँके मुनिगण भव्यजनोंको हर्षित करते रहते हैं। उस नगरोमें धर्मका रक्षक 'मधुस्वर' इस नामसे प्रसिद्ध एक वणिक् श्रेष्ठ सार्थवाह निवास करता था। उस सार्थवाहके साथ मन्दगामी तपोलक्ष्मीसे युक्त तथा हृदय-कमलमें जिनेश्वरको धारण किये हुए सागरसेन नामक मुनीश्वर चले। एक दिन वह सार्थवाह चोरोंके द्वारा लूट लिया गया तथा उसके साथी लकड़ी-पत्थरों से कूटे गये। जो शूरवीर थे, उन्होंने तो जूझते हुए प्राण छोड़ दिये और जो कायर व्यक्ति थे, वे भाग खड़े हुए। इसी बीचमें वनके मध्यमें मुनीन्द्र (सागरसेन)के तपके प्रभावसे एक फणीन्द्रने स्थितिको शान्त किया। दिशाके विघातसे विमूढ़ (दिग्भ्रम हो १० जानेके कारण), सुन्दर भुजाओंवाले उन मुनीन्द्रने एक शबरको काली नामक अपनी शबरीके साथ देखा। शूकर एवं हरिणोंके विदारण (मारने) में शूर तथा अत्यन्त कुरूप उस शबरका नाम पुरूरवा था। पूर्वोपार्जित पापोंके कारण कलुषित मनवाला वह कर पुरूरवा भी मुनि-वचनोंसे प्रबुद्ध हो गया। उस शबरने उन मुनीन्द्रकी भक्ति करके उनके पास प्रमादरहित एवं सम्यक्त्वसहित होकर श्रावक-व्रतोंको ले लिया तथा क्रोधको उपशम कर, परिग्रह छोड़कर दुनिवार काम-वासनाको १५ नष्ट कर दिया। घत्ता-मुनिके साथ जाकर, कर ऊँचा कर, उस शबरने उन्हें मार्गमें लगा दिया (पथ-निर्देश कर दिया )। इस प्रकार जिन-गुणोंका चिन्तन करता हुआ वह पुरूरवा अपनी मतिको निर्धान्त कर उपशमश्रीसे सुशोभित हुआ ||२७॥ पुरूरवा-शबर मरकर सुरौरव नामक देव हुआ। विनीतानगरीका वर्णन विधि-विधानपूर्वक श्रावक व्रतोंका दीर्घकाल तक पालन कर तथा जीवोंका अपने समान ही लालन करता हुआ वह पुरूरवा नामक शबर मरा और प्रथम-स्वर्ग में दो सागरकी आयुसे सुशोभित तथा अणिमादिक ऋद्धि-समूहसे महान् सुरोरव नामक देव हुआ। ___इस प्रविपुल ( विशाल ) भारतवर्षमें नदी, सरोवर एवं सदाबहार वृक्ष-वनस्पतियोंसे युक्त विनीता नामकी नगरी है। वह ऐसी प्रतीत होती है, मानो सुरगज इन्द्रकी निराकुल एवं अति ५ प्रविपुल ( विशाल ) नगरी ( -इन्द्रपुरी) ही हो। उस नगरीकी परिधि ( कोट ) में जड़े हुए रत्नोंकी किरणें अन्धकारका नाश करती थीं। वहाँ जलकी तरंगोंसे युक्त परिखा सुशोभित थी। उस नगरीकी चारों दिशाएँ नन्दन-वनसे विभूषित थीं। दुष्टों, दुर्जनों एवं चुगलखोरोंसे वह नगरी अदूषित थी। वहाँ नाना मणि-गणोंसे निर्मित मन्दिर बने थे। सुखद छत्रक वृक्षोंके पुष्पों ( के रसपान ) में भ्रमर लीन रहते थे। विद्याधरों, देवों एवं मनुष्योंके नेत्रोंको आनन्दित करनेवाली १० महिलाएँ गीत गातो हुई छतोंपर स्थित रहती थीं। वह नगरी नवीन वृक्ष-पल्लवोंके तोरणोंसे सुखकारी थी तथा जहाँके घरोंके आंगनोंमें पड़े हुए धान्यकणोंसे नभचर-पक्षी अपना भरण-पोषण किया करते थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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