SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 134
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २.९.२०] हिन्दी अनुवाद अमितकोति एवं अमृतप्रभ नामके सभीके हितैषी दो नभचारण मुनि उस सिंहको देखकर (उसे) प्रबोधित करने हेतु वहाँ शीघ्र ही उतरे। वहाँ वे दोनों ही मुनि सप्तपर्णी वृक्षके नीचे एक विशेष निर्मल शिलापर बैठ गये । महान् आशय वाले वे संयत मुनिवर अनुकम्पा सहित मनोज्ञ-कण्ठसे ५ शास्त्र पढ़ने लगे। मदोन्मत्त गजराजोंके मांसका लालची वह सिंह मुनिराजके शास्त्र-पाठ को सुनकर प्रबुद्ध हुआ। क्रूरभावको छोड़कर उसका प्रांजलतर मन सौम्य-स्वरूपको प्राप्त हो गया ( अर्थात् उस सिंहकी साहजिक क्रूरता समाप्त हो गयी और उसके परिणाम कोमल हो गये)। हाथियोंके लिए भयानक मुखवाला वह मृगाधिप अत्यन्त प्रशम-भावपूर्वक तथा प्रमाद-रहित होकर गुफाद्वारसे बाहर निकला और पूंछको स्थिर किये हुए नतमुख होकर मुनिराजोंके १० समीप बैठ गया। घत्ता-उसे देखकर निरायुध, काम-विजेता, शीलगुणसे अलंकृत, निरहंकारी तथा द्विजपंक्तिके समान सुशोभित वे मुनिराज अमितकीर्ति (इस प्रकार) बोले-॥२५।। सिंहको सम्बोधन "हे सिंह, तूने देवों द्वारा प्रणत, त्रिभुवनका शासन करनेवाले तथा भव्यजनोंके मुखोंको विकसित करनेवाले जिनेन्द्रके शासन ( उपदेश ) को प्राप्त नहीं किया, अतः अतिगहन भवरूपी वनमें नाना प्रकारके शरीरोंको धारण करते हुए अनेकविध दुख सह रहा है । कष्टोंमें भी प्रसन्नताका अनुभव करता हुआ, हे सिंह, यहाँ तूने मदोन्मत्त हाथियोंको त्रास दिया है तथा बड़े नये-नये विलास किये हैं। समस्त भूमिको मोतीके समान गजदन्तोंसे भर दिया है। फिर भी आशाओंको ५ न छोड़ा। ( अशुभ- ) परिणामोंसे कर्मों का अर्जन किया, दृष्टिमदसे युक्त रहा । ( देख ) यह जीव स्वयं ही ( कर्मोंका ) कर्ता एवं भोक्ता है। ( तूने ) ज्ञानमय बिम्ब ( आत्मा ) का (शरीरके साथ) भेद नहीं किया ( नहीं पहचाना )। ( अतः अब ) रागादिक भावोंके कारण सुन्दर लगनेवाली त्व-पाप रूपी कन्दराको छोड़, तुरन्त ही धर्मका अनुसरण कर। यह जीव रागी होकर कर्मोका बन्ध करता है; किन्तु अपने हितका विचार नहीं करता। अतः गतराग होकर इस कर्मको १० छोड़। अपने प्रबल बलसे अन्य कर्मों का संचय न कर। अनिन्द्य जिनेन्द्रका यह उपदेश मैंने नयविहीन तुझे सुनाया है, जो कि सुख, दुख, बन्ध एवं मोक्ष ( की परिभाषा ) को प्रकट करता है। (तू ) बन्धादिक दोषोंका निरसन कर सन्तोषके मूल कारण (धर्म ) का ध्यान कर। यहाँ तक ( भव ) दोषोंका वर्णन किया अतः अब सुखकी विवक्षा की जायेगी। उसे भी सुन।" "धर्म-वृद्धिका हर्म्य (प्रासाद ) अवगमनों ( दुर्गतियों ) को नष्ट करनेवाला, अनुपम, १५ भवमलका घातक एवं सुखोंके निलयरूप सुनिर्मल सम्यक्त्व ही वह सुख है ( तू उसे धारण कर )।" घत्ता-"रागादिक दोषों एवं रोषोंको प्रकट करते रहने के कारण तू जो भवावलियोंमें भटकता रहा है, हे सिंह, धैर्य-पूर्वक सावधान होकर तथा मनको स्थिर करके उस भ्रमणावलिको सुन" ॥२६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy