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________________ २. ८.३] हिन्दी अनुवाद हेतु, इन्द्रके समान सुन्दर गात्रवाला वह नरपति नन्दन दक्षिण-वायुसे पथके श्रमको शान्त कर दूरसे ही मदोन्मत्त महागजको छोड़कर नीचे उतर पड़ा तथा भव्यजनोंके सम्मुख ही उसने उन मुनिराजके प्रति विनय प्रदर्शित की। ( ठीक ही कहा गया है कि ) 'विनयगुणके बिना कौन व्यक्ति ५ शव ( कल्याण ) पा सकता है ?' छत्र आदि नप-चिन्होंको छोडकर तथा दुर्जेय मिथ्यात्वरूपी शत्रुसे अनिजित होकर उस राजाने वनके मध्यभागमें प्रविष्ट होकर गम्भीर एवं महाध्वनिवाले तथा पृथिवीके समस्त भयभीत प्राणियोंको शरण प्रदान करनेवाले मुनिराजको अशोक-वृक्षके मूलपीठमें एक स्फटिक शिलापर बैठे हुए देखा। वे ऐसे प्रतीत होते थे, मानो धर्मरूपी यानके माथेपर बैठकर शिवपदकी ओर ही जा रहे हों। हाथ जोड़कर तथा तीन प्रदक्षिणाएँ देकर उसने अपना सिर १० झुकाकर उनकी वन्दना की तथा पृथिवी तलपर उनके समीप बैठकर न्यायनीतिसे युक्त महीपतिने अनेक प्रकारसे विनय - घत्ता-तथा प्रशंसा कर उनसे इस प्रकार प्रार्थना की कि पंचबाणावलिका दलन करनेवाले एवं तपश्रीके साथ रमण करनेवाले हे श्रेष्ठ मुनीश्वर, मेरी भवावलि कहें-॥२३॥ राजा नन्दनके भवान्तर वर्णन-नौवाँ भव-सिंहयोनि वर्णन इस प्रकार कहकर तथा मौन धारण कर नरपति (नन्दन) जब वहाँ सम्मुख जाकर बैठा था, तभी प्रतिदिन त्रिकरण-मन, वचन एवं कायका संवर करनेवाले दिगम्बर मुनिराज बोले-'हे कुल-दिनमणि, हे भव्य-चूड़ामणि, स्थिर होकर एकाग्र मनसे सुनो-इसी भरतक्षेत्रमें हिमवन्तपर्वतसे समुत्पन्न तथा समुद्र के समान दिखाई देनेवाली सुन्दर गंगानदी है, जिसका जल श्रावकों ( अथवा श्वापदों ) का भरण-पोषण करनेवाला है तथा जो (गंगाजल) अपने फेन-समूह के बहाने ५ अन्य नदियों पर हँसता हुआ-सा रहता है। उस गंगानदीके उत्तर तटमें अति गौरवांग वराह नामका उत्तुंग पर्वत है, जो ऐसा प्रतीत होता है, मानो पृथुल आकाशको लाँघकर स्वर्गका निरीक्षण करनेका ही विचार कर रहा है। उस पर्वतपर हे नरपति, तू इसके पूर्व नौवें भवमें मदोन्मत्त हाथियोंके दर्प का दलन करनेवाला एक भयानक सिंह था, जो कुटिल भौंहोंवाला, भीषण गर्जना करनेवाला, बालचन्द्रके समान दाढ़ोंवाला, पूछरूपी हाथ ऊपर उठाये हुए, निश्चल एवं वक्र केशर ( अयाल ) वाला, क्रूर मुखवाला एवं रक्त वर्णके नेत्रवाला था तथा जो श्वापदों ( वनचर जीवों ) को मारने में समर्थ था। । घत्ता -- वृक्षावलिके गृहके समान उस पर्वत पर निवास करते हुए, वनमें रमण करते हुए तथा वन्य-हस्तियोंका दलन करने में कृतान्तके समान ही उनका हठात् खींच-खींचकर दलन करते १५ हुए, उस सिंहने वहाँ बहुत समय व्यतीत कर दिया ॥२४॥ चारणमुनि अमितकीति और अमृतप्रभ द्वारा सिंहको प्रबोधन ___ अन्य किसी एक दिन वह मृगपति वन्य हस्तियोंको मारकर श्रमातुर होनेके कारण जब अपने केशर-समूह को फैलाकर गुफा-द्वारपर सो रहा था, तभी काम-बाणको नष्ट कर देनेवाले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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