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१.१३.१२]
हिन्दी अनुवाद
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युवराज नन्दनका राज्याभिषेक –कि इसी बीच प्रियजनों से परिचरित राजा नन्दिवर्धन अपने सुपुत्र नन्दन को आनन्दचित्त पूर्वक राज्य का भार सौंपकर निश्चिन्त हो गया। यह ठीक ही है कि ( जिस समय ) वह नन्दन राज्यसिंहासनपर आसीन हुआ तभी समस्त सामन्त एवं मन्त्रीगणोंने उसके दर्शन किये। परिजनोंके मनमें बड़ा हर्ष हुआ। अपने प्रभुको देखकर किसे आनन्द नहीं होता ? इच्छाधिक दान देकर सुखी किये गये बन्दीजनोंके मनोरथ पूर्ण हो गये। वह राजा नन्दन शत्रुओंके । लिए भीषण अवश्य था, किन्तु देवताओं अथवा विद्वानों से अलंकृत वह ( राजा ) साक्षात् जंगम कल्पवक्षके समान ही प्रतीत होता था। उसने श्रेष्ठ एवं मनोज्ञ जिनगहों तथा उनपर करोडों स्वर्ण कूट बनवाये, जो पद्मराग-मणियों से अरुणाभ तथा नभस्तल तक पल्लवित विशाल वनके समान प्रतीत होते थे। और भी कि, जो व्यक्ति महान् सन्त होते हैं, वे ( मन्दिर बनवाने आदि ) धर्ममें अनुरक्त रहते हैं तथा परलोककी चिन्ता करते हैं। जिनके निरन्तर चलते हुए द्युतिपूर्ण चामरोंकी १० ऊँचाईसे खेचर एवं अमर भी आश्चर्यचकित थे, जिनके दानजलकी गन्धसे भौंरे राग-युक्त हो रहे हैं, ऐसे मदोन्मत्त महागज उसे भेंट स्वरूप प्राप्त हुए। इस प्रकार बहुत अधिक दान ( भेंट ) देनेवालोंके प्रति कौन सा व्यक्ति भाईके समान ही सन्तोष धारण न करेगा? उन्होंने :___घत्ता-हाथ उठाकर असि फल लेकर छल-कपट का त्यागकर सम्भाषण किया ( और
१५ कहा कि ) :-"मधुर-भाषी, कुशल एवं वात्सल्य गुणवाला यह नन्दन हमारा स्वामी ( राजा) है।" ॥ १२ ॥
राजा नन्दिवर्धन द्वारा आकाशमें मेघकूटको विलीन होते देखना वह धीर-वीर नन्दन रूपी गोप, रक्षारूपी शक्तिशाली रस्सी द्वारा नियमन कर, निरुपम नयरूपी हाथोंसे लालन-पोषण कर, चार समुद्ररूपी पयोधरोंके रत्नरूपी दुग्धसे युक्त पृथिवीरूपी गायका दोहन करने लगा। ( अर्थात् वह राजा नन्दन चारों समुद्रों तक व्याप्त अपने विशाल साम्राज्यको सुरक्षित एवं समृद्ध कर प्रजाजनोंका न्याय-नीतिपूर्वक लालन-पालन करने लगा )। जिस समय कामदेवरूपी सिंह की गुफाके समान तथा पृथिवी-मण्डलकी सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी उस ५ प्रियंकराके अधर मन्द-मन्द हास्यसे अलंकृत होते थे, तब-तब वह नन्दन बिना विरामके ही उसके साथ रमण करता था।
__ और इधर, जब राजा नन्दिवर्धनने कुलक्रमागत त्रिवर्गों का अनुक्रमपूर्वक साधन करते हुए सुखपूर्वक अगणित वर्ष व्यतीत कर दिये, उसी समय किसी एक दिन जब वह उन्नत, विशाल एवं श्रीसम्पन्न राजभवनपर रमणकार्यमें उत्कण्ठित सुनयनी अपनी रमणी ( पट्टरानी ) के १० साथ विराजमान था, तभी ऊपर आकाशमें लीलापूर्वक अत्यन्त शोभा-सम्पन्न मेघोंका एक विचित्र कूट ( शिखर ) देखा । वह ऐसा प्रतीत होता था मानो आकाशरूपी समुद्रका सुन्दर चंचल पवनके. द्वारा एकत्रित फेनसमूह ही हो।
घत्ता-शत्रु-राजाओंका विध्वंस करनेवाला वह राजा नन्दिवर्धन आश्चर्यचकित होकर स्थिर मनसे जब अपने सिर का ( पलित ) केश देख रहा था, तभी आकाशमें वह मेघ विलीन १५ हो गया ॥ १३ ॥
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