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________________ 5 10 5 10 १४ एत्यंतरे पिय परियरिय काउ णिउ णिञ्चितिउ साणंद-चित्तु हरिणारि वूढ - विरे णिविद्रु संजाउ हरिसु मणि परियणाँसु ईच्छाहिय- दाणें कय-सुहाइ सो सुमणालंकि वइरि-भीसु सो कण-कूड - कोहि वराइँ पोम-मणि कॅरोहहिँ आरुणाइँ अवर विर हुंति महंत संत अणवरय चलिये सुवि चामरे हिं दागंबु गंध-र-छप्पएहिं भाव संतो रक्खा-रज्जु णिम्मिवि भरेण चउ-जल हि-पओहर रयण-खीरु जह कालि ललिय भू-सुंदरीन देर-हासालंकरियाहराइँ इयते तव अण कमेण णीयइ अगणिये संखइ सुहेण एत्थंतर एक्कहिंदिणि विसाले सहुँ त सुनयणि संठिएण रणा लीलइँ पबल-सोहु - सायरासु फेण-पुंजु व माणचरिउ १२ रायो र अपवि अहो जाउ । सुउ जणणहो हवइ हरिस मित्तु | सामंत-मंति सव्वेहिँ दिनु । पेहु पेक्खर्ण हरि ण होइ कासु । वं पूरंतु मोहराएँ । जंगम तुरतरु समुहुउ महीसु । कारावर मणहर जिणहराइँ पल्लवियंवर पविउल-वणाइँ । धम्मारत्त चिंतिय परत | तुंगहि विभिय-खयराम रेहिं । पाहुड-मय-मत्त- महागएहिँ । बहु-दाणवंत अवर वि जणासु । कहिँ कासु घत्ता - उभिवि करु लेविणि असि फरु संभासइ चच्चिय सो सुस्सरु कुसल -पुरस्सर समिउ होइ सवच्छलु ||१२|| छलु । Jain Education International १२. १. J V एहु । २. D. करे लहि । १३.१. D. J. V. हर । २. D. J. V, अगणि । १३ निरुवम एण लालिवि करेण । गो दुहिवि लेइ सो गोउ धीरु । कुसुमाउह केसरि-कंदरीत | सोरमइ निरारिउ सहु पियाइँ । सातें धरि-कुलककमेण । वच्छर हूँ मंदिवड्ढण-निवेण । उत्तुंग सउले सिरि-विसाले । नियमणि रमणुक्कंठिएण | दिउ विचित्त कूडुवरि मेहु | चंचलयरु पवण-वसेण मंजु । घत्ता - सो नरवइ णिह्य णरावइ जाव सर्विभउ थिरम | विणिहालइ निय [ य ] सिरु वालइँ ता विलीणु नहयले घणु ॥ १३ ॥ [ १.१२.१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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