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________________ १.११.१२] हिन्दी अनुवाद १३ ___ राजकुमार नन्दनको युवराज-पदपर नियुक्ति "जब यह जीव 'यह मेरा है, यह मेरा है' इस प्रकार कहता है, तभी वह जरा, जन्म एवं मृत्युको प्राप्त होता है और यही जीव जब भव-भावसे विमुक्त तथा आत्म-भावको प्राप्त कर लेता है तब वह मोक्षस्थलको चला जाता है।" उन मुनिराजके इस प्रकार वचन सुनकर अन्य साथियोंके साथ उस राजकुमारने अपने मिथ्यात्वरूपी अन्धकार-समूहको नष्ट कर दिया तथा निर्मल मनसे जिस क्षण तत्त्वको पहचाना, ५ उसी क्षण उसका हृदय-कमल विकसित हो उठा। मुनि द्वारा प्रदत व्रताभरणोंसे रम्य होकर तथा मिथ्यात्व-भावोंसे विराम लेकर ( नष्ट कर ) वह नृप-पुत्र सम्यक्त्वसे युक्त होकर अपने घर वापिस लौट गया। ___ अन्य किसी शुभ-दिवसपर शत्रु-सैन्य द्वारा अपराजित तथा सामन्त एवं मन्त्रियोंसे सुशोभित उस नराधिप नन्दिवर्धनने गम्भीर तूर्य, भेरी आदि वाद्य-ध्वनियोंके साथ राजकुमार १० नन्दन का राज्याभिषेक कर उसे शत्रुजनों के लिए सन्त्रासकारी युवराज-पद प्रदान किया। त्रैलोक्य• के युवराज-पदको प्राप्त कर उस नन्दनने अपनी सेवा करनेवाले सम्पूर्ण सेवकोंको पर्याप्त दान दिये। गुणोंका निधान वह युवराज ऐसा तेजस्वी हुआ, जिस प्रकार शरद्-ऋतुका समागम पाकर सूर्य तेजस्वी हो जाता है। घत्ता-अति भक्त एवं सेवकोंमें आसक्त प्रमख राजकुमारोंके लिए वह यवराज नन्दन १५ चिन्तामणि रत्नके समान था तथा सूर्यको द्युतिको भी जीतनेवाला तथा कामदेवोंमें मानी सिद्ध हुआ ॥१०॥ युवराज नन्दनका प्रियंकराके साथ पाणिग्रहण युवराज नन्दन यद्यपि नवयौवनरूपी लक्ष्मीसे युक्त तथा सुन्दर था, तो भी वह मदसे रहित था। यद्यपि उसके मनमें भय कदापि न था, तो भी वह बैरियोंको सदा भयभीत करता रहता था । यद्यपि उसका चित्त सम्पूर्ण रूपसे परदारा-व्रतसे युक्त था, तो भी उसने अपने यशसे धरणीरूपी महिलाके प्रदेशोंको धवलित कर दिया था। वह जिनेश्वरके पाद-दन्द्रोंकी पूजा किया करता था, रति-विषयके भावोंको कृश करता रहता था, जिनेन्द्रके चरितोंको सुना ५ करता था, मुनीश्वरोंके पदोंमें प्रणाम किया करता था। उसका विपुल-भाल चूड़ामणिसे विभूषित था। इस प्रकार जब वह धर्म-कार्यमें आसक्त रहता हुआ अपना समय व्यतीत कर रहा था, तभी पिताके आग्रहसे ही उसने सराग-भावको प्राप्त होकर प्रियंकरा ( नामकी एक राजकन्या ) के साथ पाणिग्रहण कर लिया। पतिभक्ता वह प्रियंकरा अपनी सौन्दर्यश्रीसे देवांगनाओंके सुगात्रोंको भी जीतनेवाली थी। प्रियतमके प्रसादसे उस प्रियंकराने भी सम्यक्त्वपूर्वक व्रतोंको प्राप्त कर । लिया और इस प्रकार वह धर्मामृतका पान करने लगी, क्योंकि जो कुलांगनाएँ होती हैं, वे अपने प्रियतमके अनुकूल चलती ही हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं। पत्ता-लज्जाकी सखी, विनयकी आधारभूमि एवं प्रेमरूपी समुद्रकी शशिकलाके समान वह प्रियंकरा जब अपने प्रियतमके रंजन तथा परिजनोंके मनोरंजनकी कलाको जानती हुई सुखानुभोग कर रही थी ।। ११ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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