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________________ १. ९. १२ ] हिन्दी अनुवाद राजकुमार नन्दनका वन-क्रीडा हेतु गमन । नन्दनवनका सौन्दर्य-वर्णन जिस नन्दन-वनमें अशोक आदि पुष्पोंकी पंक्तियाँ रुणझुण-रुणझुण करते हुए भ्रमर-समूहोंसे काली दिखाई दे रही थीं। वे ऐसी प्रतीत हो रही थीं, मानो पद्मनील मणियों द्वारा विशेषरूपसे निर्मित निर्मल वनश्रीकी मेखला ही हों। जहाँ पयस्विनी विशाल वापिकाएँ थीं, जो ( देखने में ) निर्मल एवं मनोहर तथा असि-लताके समान लगतो थीं। जहाँ देवों, मनुष्यों एवं नागोंको भी आश्चर्यचकित कर देनेवाली तरुणी महिलाएँ निर्भय होकर क्रीडाशील थीं, जहाँ लतागृहोंमें ५ अन्धकारकी परवाह किये बिना ही दम्पति अनुरागसे भरकर रमण कर रहे थे। जहाँ देवांगनाओंके गीतोंसे मोहित होकर देव इस प्रकार सुशोभित हो रहे थे, मानो भित्तिपर लिखे गये चित्र ही हों। उसे ( नन्दनको ) यह भी ध्यान न रहा कि कामदेवने ( उसपर ) मोहबाण साध लिया है। ठीक हो है, विषय-वासनाको संगतिमें पड़कर उसका ध्यान ही किसे रहता है ? जहाँ गहरे तथा जलसे परिपूर्ण सरोवर थे, जिनके पानीमें युवती-वधुएँ क्रीड़ा-शील थीं। १० जहाँ हंस हंसनी से अनुनय करता रहता है और प्रेम उत्पन्नकर रति-विषयमें विजय प्राप्त करता " है। जो ( नन्दनवन ) पूजा पढ़ते हुए शुकोंसे व्याप्त तथा कोकिलोंकी कल-कल ध्वनिसे आकुल था । जहाँ नागरजन प्रभूत क्रीड़ाएँ किया करते हैं तथा विद्याधर अपने घर ( वापस लौटकर ) नहीं जाना चाहते । जहाँ विविध वृक्षावलियोंके पुष्पोंसे दिग्-दिगन्तर निरन्तर सुवासित रहते हैं, घत्ता–जहाँ मलयानिल वृक्षोंसे टकराती रहती है, उस वनमें सुन्दरियाँ अपने पति इन्द्रके साथ रमण करती रहती हैं एवं जहाँ खेचरेन्द्र भी उत्तम फलोंका सेवन कर क्रीड़ाएँ करता हुआ विचरण करता है ।। ८॥ राजकुमार नन्दनको मुनि श्रुतसागरसे भेंट उस नन्दन-वनमें राजकुमार नन्दनने कंकेल्ली ( अशोक ) वृक्षके नीचे स्फटिक-शिलापर ध्यानमें लीन बैठे हुए श्रुतसागर नामके एक मुनिश्रेष्ठको देखा। वे ऐसे प्रतीत हो रहे थे, मानो वहाँ अपने यशोपुंजपर ही विराजमान हों। वे भव्यों द्वारा नमस्कृत, भव-भावोंसे रहित एवं निरहंकारी थे। उनकी वाणी गंगाके प्रवाहके समान दिव्य तथा रत्नत्रयसे परिरक्षित थी। कुमार नन्दनने दोनों हाथोंसे मुनिराजके उन चरण-कमलोंमें नमस्कार किया, जिनके नखरूपी ५ मणियोंमें नम्रीभत भव्यजनोंके मख प्रतिबिम्बित होते रहते थे। उसने अपने कर-कमलोंमें कंचन कुसुमोंकी जोड़ी लेकर अर्चना-पूजा की और इस प्रकार चिरसंचित पापोंको तोड़ डाला। दुःसह तपश्रीसे भास्वर उन मुनिश्रेष्ठके समीपमें बैठकर नन्दनने पूछा-"संसाररूपी सर्पके विषको दूर करनेमें मन्त्रके समान हे सन्त भगवन्, आपने अष्टविध कर्मोको नष्ट करके भीषण संसाररूपी समुद्रको पार कर लिया है। हे एलापत्य गोत्रके आदि परमेश्वर, ( अब कृपाकर) १० मुझे यह बतलाइए कि यह जीव निर्वाण-स्थलमें किस प्रकार जाता है ?". घत्ता-राजकुमार नन्दनके मदनको नष्ट करनेवाले वचनोंको सुनकर मुनिराजने समस्त लोकोंके शोकको नष्ट कर उनके हृदयमें आनन्दको प्रकाशित करनेवाला उत्तर ( इस प्रकार ) दिया-॥९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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