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________________ ७/ द्वार १४४-१४५ .. .::-5000 (iii) दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा जिसमें सम्यक्त्व विषयक प्ररूपणा हो वह दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा है। इस संज्ञा की अपेक्षा क्षायोपशमिक सम्यग्ज्ञान युक्त सम्यग्दृष्टि ही संज्ञी है। मिथ्यादृष्टि सम्यग ज्ञान रहित होने से असंज्ञी है। यद्यपि व्यवहार की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि में कोइ अन्तर नहीं होता। मिथ्यादृष्टि भी सम्यग्दृष्टि की तरह घट को घट ही कहता है पट नहीं कहता। तथापि तीर्थंकर परमात्मा द्वारा प्ररूपित वस्तु स्वरूप की यथार्थ श्रद्धा न होने से, मिथ्यादृष्टि का व्यावहारिक सत्यज्ञान भी अज्ञानरूप ही है। प्रश्न- इस संज्ञा की अपेक्षा विशिष्ट ज्ञानयुक्त सम्यग्दृष्टि ही यदि संज्ञी है तो मात्र क्षायोपशमिक ज्ञानयुक्त ही क्यों लिया, क्षायिक ज्ञानयुक्त भी लेना चाहिये। क्योंकि क्षायिक ज्ञानी की संज्ञा विशिष्टतर होती है। समाधान–अतीत वस्तु का स्मरण और अनागत की चिन्ता करना ‘संज्ञा' है। केवलज्ञानी के ज्ञान में त्रैकालिक सभी वस्तुयें सदाकाल प्रतिभाषित होने से उन्हें स्मरण, चिन्तन करने की आवश्यकता ही नहीं है। अत: इस संज्ञा की अपेक्षा क्षायोपशमिक ज्ञानी ही संज्ञी है। प्रश्न- सर्वप्रथम 'हेतुवादोपशिकी' संज्ञा का प्रतिपादन करना चाहिये। कारण, वह अविशुद्धतर है। इस संज्ञा की अपेक्षा अल्प मनोलब्धि वाले द्वीन्द्रिय आदि भी संज्ञी कहलाते हैं। तत्पश्चात् दीर्घकालोपदेशिकी संज्ञा बताना चाहिये क्योंकि हेतुवादोपदेश संज्ञी की अपेक्षा दीर्घकालोपदेश संज्ञी मनपर्याप्ति-युक्त होने से अधिक विशुद्ध हैं तो यहाँ संज्ञाओं का कथन व्युत्क्रम से क्यों किया? समाधान—आगम में सर्वत्र संज्ञी-असंज्ञी का व्यवहार दीर्घकालोपदेशिकी संज्ञा द्वारा ही होता है। इसी कारण यहाँ भी सर्वप्रथम उसी का उल्लेख किया है। कहा है __ “सूत्र में संज्ञी-असंज्ञी का व्यवहार 'दीर्घकालोपदेशिकी संज्ञा' द्वारा ही होता है अत: सर्वप्रथम उसी का कथन किया।" गौण होने से उसके बाद हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा तथा प्रधान होने से अंत में दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा बताई गई ।। ९१८-९२२ ॥ १४५ द्वार: संज्ञा ४ आहार भय परिग्गह मेहुण रूवाओ हुंति चत्तारि । सत्ताणं सन्नाओ आसंसारं समग्गाणं ॥ ९२३ ॥ -गाथार्थचार संज्ञा-समस्त संसारी जीवों के भववास पर्यन्त १. आहार २. भय ३. परिग्रह और ४. मैथुन-ये चार संज्ञाएं होती हैं। ९२३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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