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________________ प्रवचन - सारोद्धार दीर्घकालोपदेश संज्ञी है । यह संज्ञा मनपर्याप्ति युक्त गर्भज तिर्यंच, गर्भज मनुष्य, देव और नरक के ही. होती है क्योंकि त्रैकालिक चिन्तन उन्हीं को होता है। इस संज्ञा वाले प्राणी को सभी पदार्थ स्पष्ट परिलक्षित होते हैं। जैसे चक्षुवाला प्राणी प्रदीपादि के प्रकाश में सभी पदार्थों को स्पष्ट देखता है, वैसे इस संज्ञा से संज्ञी व्यक्ति मनोद्रव्य की सहायता से उत्पन्न चिन्तन के द्वारा पूर्वापर का अनुसंधान करते हुए वस्तु का यथार्थ ज्ञान करता है । ७७ इस संज्ञा से रहित संमूर्च्छिम पंचेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय आदि अपेक्षाकृत असंज्ञी है। इनमें मनोलब्धि अल्प, अल्पतर होती है, अतः इनका ज्ञान भी अस्फुट, अस्फुटतर होता है । संज्ञी पंचेन्द्रिय की अपेक्षा संमूर्च्छिम पंचेन्द्रिय का ज्ञान अस्फुट होता है । संमूर्च्छिम पंचेन्द्रिय की अपेक्षा चतुरिन्द्रिय का ज्ञान अधिक अस्फुट होता है । उसकी अपेक्षा त्रीन्द्रिय का ज्ञान अस्फुटतर होता है। उससे द्वीन्द्रिय का ज्ञान अस्फुटतम होता है। एकेन्द्रिय का ज्ञान तो सर्वथा अस्फुट होता है । क्योंकि उनके प्रायः मनोद्रव्य नहीं होता । एकेन्द्रिय के अत्यंत अल्प व अव्यक्त मन होता है, जिससे उसे भूख प्यास इत्यादि की अव्यक्त अनुभूति होती है। (ii) हेतुवादोपदेशिकी - जिस संज्ञा में हेतु विषयक प्ररूपणा हो अर्थात् जिस संज्ञा द्वारा प्राणी अपने देह की रक्षा हेतु इष्ट में प्रवृत्ति और अनिष्ट से निवृत्ति करता है, वह हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा है । जैसे गर्मी हो तो छाया में जाना, सर्दी हो तो धूप में जाना, भूख लगने पर आहारादि के लिये प्रवृत्ति करना आदि। यह संज्ञा प्राय: वर्तमान कालीन प्रवृत्ति, निवृत्तिविषयक है । प्रायः कहने से द्वीन्द्रिय आदि जीव जो अतीत, अनागत की भी सोच रखते हैं ये इसी संज्ञा वाले हैं । कारण, उनके चिन्तन का विषय अतीत, अनागत काल होते हुए भी अति अल्प होता है । अतः प्रवृत्ति, निवृत्ति से रहित पृथ्वी आदि के जीव असंज्ञी ही हैं । तात्पर्य यह है कि प्राणी अपने देह की सुरक्षा हेतु चिन्तनपूर्वक इष्ट, अनिष्ट में प्रवृत्ति या निवृत्ति करता है, वह संज्ञी है । इस प्रकार द्वीन्दिय आदि भी हेतुवादोपदेशसंज्ञी हैं । चिन्तनपूर्वक प्रवृत्ति - निवृत्ति, मनोव्यापार के बिना नहीं होती और वह द्वीन्द्रिय आदि जीवों के होता है, क्योंकि उनमें इष्टवस्तु में प्रवृत्ति और अनिष्ट से निवृत्ति स्पष्ट दिखाई देती है । इनका चिन्तन प्राय: वर्तमान विषयक ही होता है । दीर्घकालीन अतीत-अनागत विषयक नहीं होता । अतः ये दीर्घकालोपदेशिक संज्ञी नहीं हैं । जिन जीवों की प्रवृत्ति या निवृत्ति चिन्तनपूर्वक नहीं होती, वे जीव हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा की अपेक्षा असंज्ञी हैं जैसे पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय जीव । यद्यपि पृथ्वी आदि में आहारादि दस संज्ञा की विद्यमानता यहाँ और प्रज्ञापनादि में बताई गई हैं, तथापि वे संज्ञी नहीं कहलाते। कारण, उनमें ये संज्ञायें अति अव्यक्त रूप में तथा अशोभनीय (तीव्र मोहनीय कर्म जन्य होने से ) है । जैसे अल्प धन होने से कोई धनवान् नहीं कहलाता। आकारमात्र से कोई रूपवान नहीं कहलाता वैसे आहारादि संज्ञा होने से कोई संज्ञी नहीं कहलाता। इसीलिये हेतुवादोपदेश संज्ञी के विषय में कहा है कि - 'समनस्क कृमि, कीट, पतंग आदि संज्ञी त्रसों के चार भेद हैं और पृथ्वीकाय आदि असंज्ञी जीवों के पाँच भेद हैं ।' अब दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा की अपेक्षा कौन संज्ञी है ? कौन असंज्ञी है ? यह बताते हैं । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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