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१४४ द्वार :
सन्नाउ तिन्नि पढमेत्थ दीहकालोवएसिया नाम । तह हेउवायदिट्ठीवाउवएसा तदियराओ ॥ ९९८ ॥
द्वार ९४४
एयं करेमि एयं कयं मए इममहं करिस्सामि । सो दीहकालसन्नी जो इय तिक्कालसन्नधरो ॥ ९९९ ॥ जे उण संचिंतेउं इट्ठाणिट्ठेसु विसयवत्सुं ।
वत्तंति नियत्तंति य सदेहपरिपालणाहेउं ॥ ९२० ॥
पाएण संपइच्चिय कालंमि न यावि दीहकालंमि । ते वायसन्नी निच्चेट्ठा हुंति हु असन्नी ॥ ९२१ ॥ सम्मद्दिट्ठी सन्नी संते नाणे खओवसमिए य । असन्नी मिच्छत्तंमि दिट्ठिवाओवएसेणं ॥ ९२२ ॥ -गाथार्थतीन संज्ञा - संज्ञा के तीन भेद हैं:- १. दीर्घकालोपदेशिका २ हेतुवादोपदेशिका तथा ३. दृष्टिवादोपदेशिका ।। ९९८ ॥
'मैं यह करता हूँ ......' मैंने यह किया'......' मैं यह करूंगा' इस प्रकार तीनों कालों का अनुसन्धान करने वाला दीर्घकालिक संज्ञी है ।। ९९९ ।।
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संज्ञा ३
जो जीव निजदेह के पालन हेतु इष्ट-अनिष्ट विषयवस्तु में चिन्तनपूर्वक प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति करते हैं वे हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा वाले हैं। ये जीव प्राय: करके वर्तमान काल को लक्ष्य में रखते हुए ही प्रवृत्ति - निवृत्ति करते हैं। इनका लक्ष्य दीर्घकालीन नहीं होता ।
असंज्ञी चेष्टा रहित होते हैं ।। ९२०-२१ ।।
सम्यग्दृष्टि तथा क्षायोपशमिकज्ञानी दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा द्वारा संज्ञी हैं, पर मिथ्यादृष्टि इस संज्ञा की अपेक्षा से असंज्ञी है ॥ ९२२ ॥
-विवेचन
संज्ञा = ज्ञान, इनके तीन प्रकार हैं
(i) दीर्घकालोपदेशिकी (ii) हेतुवादोपदेशिकी (iii) दृष्टिवादोपदेशिकी
(i) दीर्घकालोपदेशिकी - अतीत, अनागत वस्तुविषयक ज्ञान, दीर्घकालोपदेशिकी संज्ञा है । जैसे 'यह किया, यह करना है, यह करूंगा' इत्यादि मनोविज्ञान। ऐसे त्रैकालिक वस्तु विषयक ज्ञानवाला आत्मा
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