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________________ प्रवचन-सारोद्धार वस्तुगत ह्रस्वत्व व दीर्घत्व धर्म सहकारी के सहयोग से परिलक्षित होने वाले धर्म हैं, सहकारी का संयोग होने पर ही वे प्रकट होंगें। अत: वे परोपाधिक हो नहीं सकते, वास्तविक हैं। (vii) व्यवहार सत्य-जो भाषा लोक व्यवहार से सत्य मानी जाती हो। जैसे पर्वत पर घास या झाड़ जल रहे हों फिर भी लोक भाषा में कहा जाता है कि पर्वत जल रहा है। झरता पानी है फिर भी लोक भाषा में कहा जाता है कि मटकी झर रही है। पेट होने पर भी गर्भ धारण के अभाव में लोक भाषा में स्त्री को अनुदरा कहा जाता है। रोम होने पर भी काम योग्य रोम के अभाव में भेड़ को अलोमा कहा जाता है। लोक व्यवहार की अपेक्षा से साध भी उस भाषा का प्रयोग करता है। (viii) भाव सत्य–पाँच वर्ण वाली वस्तु को किसी एक वर्ण की अधिकता की अपेक्षा से एक वर्ण वाली कहना, जैसे 'बलाका' में पाँच वर्ण होने पर भी शुक्ल वर्ण का आधिक्य होने से उसे सफेद कहना। (ix) योग सत्य–किसी वस्तु के सम्बन्ध से व्यक्ति को भी उस नाम से पुकारना, जैसे कोई व्यक्ति हमेशा छत्री रखता हो पर कभी छत्री न हो तो भी उसे 'छत्री 'के नाम से पुकारना। हाथ में दण्ड रखने से 'दण्डी' कहना। (x) औपम्य सत्य-उपमेय को उपचार से उपमान के रूप में पुकारना, जैसे बहुत बड़े तालाब को ‘समुद्र' कहना, अत्यन्त सुन्दर एवं सौम्य चेहरे को ‘चन्द्रमा' कहना ॥८९१ ॥ २. मृषा भाषा-वस्तु के स्वरूप का अयथार्थ प्रतिपादन करना। इसके दस भेद हैं। (i) क्रोधमृषा-क्रोधवश सत्य या असत्य कुछ भी बोलना असत्य ही कहलाता है, क्योंकि वह शब्दत: सत्य होने पर भी आशय की दृष्टि से असत्य ही है। जैसे घुण (लकड़ी का कीड़ा) लकड़ी को कुरेदता है। यद्यपि उसका कोई अभिप्राय नहीं होता तथापि यदा-कदा लकड़ी पर अक्षर बन जाता है। वैसे ही क्रोधवश बोलते-बोलते मुँह से सत्य बात निकल जाती है अथवा विश्वास पैदा करने के लिये भी सत्य बोलता है तथापि आशय बुरा होने से ऐसा सत्य भी असत्य ही है। जैसे क्रोधवश पिता अपने पुत्र को कहता है “तू मेरा पुत्र नहीं है।” तथा जो दास नहीं है उसे दास कहना इत्यादि । (ii) मानमृषा—गर्व से स्वयं का उत्कर्ष बताने के लिये झूठ कहे कि “मैं पहिले ऐश्वर्यवान था, स्वामी था।" (iii) मायामृषा दूसरों को ठगने के लिये सत्य या असत्य कुछ भी बोलना मायामृषा है। (iv) लोभमृषा—लोभवश अल्पमूल्य वाली वस्तु को मूल्यवान कहना लोभमृषा है। (v) प्रेममृषा-प्रेमवश असत्य भाषण करना, जैसे रागवश कोई पुरुष किसी स्त्री को कहता है कि मैं तेरा दास हूँ। (vi) द्वेषमृषा द्वेषवश झूठ बोलना जैसे द्वेषवश गुणी को निर्गुणी कहना। (vii) हास्यमृषा-मजाक में झूठ बोलना । जैसे किसी का कुछ छुपाकर मजाक में कहना कि मैंने नहीं छुपाया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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