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________________ ५६ द्वार १३९ से यहाँ भी पानी को पिच्च कहा जाये तो वह सत्य है। इसकी सत्यता का आधार है आशयशुद्धि, इष्टार्थप्रतिपत्ति व व्यवहारप्रवृत्ति । (ii) सम्मत सत्य - सर्व सम्मत वचन । सूर्यविकासी, चन्द्रविकासी आदि सभी कमल कीचड़ में पैदा होते हैं, किंतु पंकज शब्द का प्रयोग अरविन्द के लिये ही सर्वसम्मत है । अतः अरविंद के लिये पंकज का प्रयोग सत्य है पर कुवलयादि के लिये असत्य है, असम्मत होने से । (iii) स्थापना सत्य - तथाविध अंकरचना या आकृतिविशेष को देखकर उसके लिये शब्द विशेष का प्रयोग करना स्थापना सत्य है । जैसे एक संख्या के आगे दो बिन्दु (१००) लगे हुए देखकर 'सौ' शब्द का तथा तीन बिन्दु लगे देखकर हजार शब्द का प्रयोग करना । तथाविध आकार विशेष को देखकर यह एक माशा है, यह एक तोला है, ऐसा शब्द प्रयोग करना अथवा पत्थर आदि की मूर्ति में, चित्र में तथाविध आकार देखकर अरिहंत की धारणा करना । जिन नहीं हैं फिर भी जिन मानना । आचार्य नहीं हैं फिर भी आचार्य मानना । (iv) नाम सत्य - जो केवल नाम मात्र से सत्य हो । जैसे अकेला होने पर भी किसी का नाम 'कुलवर्धन' हो वह नाममात्र से सत्य है, भाव से नहीं । धन की वृद्धि नहीं करता फिर भी उसे धनवर्धन कहना । अयक्ष को यक्ष कहना । (v) रूप सत्य-स्वरूप से सत्य । जैसे किसी ने दंभवश साधुवेष धारण किया हो, वह वेष (रूप) से साधु कहलाता है । (vi) प्रतीत्य सत्य - - अपेक्षाकृत सत्य जैसे अनामिका अंगुली को कनिष्ठा की अपेक्षा से लम्बी और मध्यमा की अपेक्षा से छोटी कहना | प्रश्न- एक ही वस्तु में परस्पर विरोधी ह्रस्वत्व व दीर्घत्व वास्तविक कैसे हो सकते हैं ? उत्तर—निमित्त भेद से एक ही वस्तु में ह्रस्वत्व व दीर्घत्व धर्म के रहने में कोई विरोध नहीं है । यदि एक ही अंगुली जैसे कनिष्ठा या मध्यमा की अपेक्षा से अनामिका को ह्रस्व और दीर्घ मानें तो विरोध है क्योंकि एक निमित्त की अपेक्षा से एक ही वस्तु में विरोधी दो धर्म नहीं रह सकते । परन्तु एक की अपेक्षा से वस्तु को ह्रस्व और दूसरे की अपेक्षा से दीर्घ मानें तो एक ही वस्तु में सत्व-असत्व धर्म की तरह ह्रस्व-दीर्घ धर्म के रहने में भी कोई विरोध नहीं होता, क्योंकि दोनों के निमित्त भिन्न हैं । प्रश्न – यदि ह्रस्वत्व और दीर्घत्व, एक ही वस्तु में निमित्त भेद से वास्तविक हैं तो सरलता और वक्रता की तरह वे वस्तु में निमित्त निरपेक्ष परिलक्षित क्यों नहीं होते ? अतः निमित्त सापेक्ष होने से ये दोनों धर्म काल्पनिक हैं ? उत्तर – ऐसा कहना गलत है। वस्तुतः वस्तुगत धर्म दो प्रकार के हैं— (i) सहकारी के सहयोग से परिलक्षित होने वाले तथा (ii) स्वतः परिलक्षित होने वाले । (i) पृथ्वीगत गन्ध जल के सहयोग से परिलक्षित होती है अतः वह प्रथम प्रकार का धर्म है । (ii) कपूर में रहनेवाली गंध स्वतः परिलक्षित होने से दूसरे प्रकार में आती है 1 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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