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कार्य का परिणाम जानने हेतु वहाँ पधार गये । सर्वत्र भ्रमणशील होने के कारण कृष्ण ने द्रौपदी के विषय में नारद को पूछना उचित समझकर कहा - ' भगवन् ! आप सर्वत्र विचरण करने वाले हैं। घूमते हुए आपने कहीं द्रौपदी को देखा क्या ?' नारद ने मुस्कुराते हुए कहा- " - 'वासुदेव ! धातकीखण्ड की अमरकंका के राजा पद्मनाभ के महल में मैंने उसे देखा था।' ऐसा कहकर नारद चले गये। सुराग पाकर कृष्ण ने पाण्डवों को कह दिया कि चिन्ता करने की अब कोई आवश्यककता नहीं है । द्रौपदी का पता लग गया है। मैं उसे वहाँ से शीघ्र ही मुक्त कराके लाऊंगा और वे पाण्डवों के साथ विशाल सेना लेकर दक्षिण दिशा की ओर चल पड़े । समुद्रतट पर पहुँच कर अथाह - अपार सागर को देखकर पाण्डव बोले- 'स्वामिन् ! जो समुद्र मन से अलंघनीय है उसे तन से कैसे पार करेंगे ?' कृष्ण ने उन्हें निश्चिन्त रहने का कहकर लवण समुद्र के अधिष्ठाता सुस्थितदेव की अट्ठम अर्थात् तीन दिन के उपवास पूर्वक आराधना की । देव ने प्रसन्न होकर याद करने का कारण पूछा। कृष्ण कहा - 'हे सुरश्रेष्ठ ! द्रौपदी को लौटाने में आप हमारी मदद करें।' देव ने कहा- 'जैसे पद्मनाम ने अपने मित्रदेव द्वारा उसका अपहरण करवाया, वैसे मैं भी वहाँ से उसका अपहरण कर आपको सौंप दूँ अथवा दलबल सहित पद्मनाभ को समुद्र में डालकर द्रौपदी को वहाँ से लाऊँ । जैसी आपकी आज्ञा मैं वैसा ही करने को तैयार हूँ ।' कृष्ण ने कहा - 'ऐसा करना अपयश का कारण है । आप तो पाँच पाण्डवों सहित हमारे छ: रथों के जाने का रास्ता समुद्र में कर दीजिये ताकि हम वहाँ जाकर पद्मनाभ को जीतकर ही द्रौपदी को लायें ।'
द्वार १३८
सुस्थितदेव ने वैसा ही किया । कृष्ण भी पाण्डवों सहित जल में स्थल की तरह गमन कर अमरकंका नगरी के बाहर उद्यान में जा पहुँचे । सर्वप्रथम उन्होंने दारुक दूत को भेजकर पद्मनाभ को अपने आगमन की सूचना दी साथ ही कहलवाया कि वह द्रौपदी को सहर्ष उन्हें सौंप दे। परन्तु अहंकार में चूर पद्मनाभ ने सत्य से मुँह मोड़ते हुए यही सोचा कि कृष्ण अपने क्षेत्र का वासुदेव है, यहाँ वह क्या कर सकता है ? अतः दूत को कह दिया कि अपने स्वामी को जाकर कह दो कि द्रौपदी को लेना है तो युद्ध की तैयारी करे और खुद भी युद्ध की तैयारी करके मैदान में आ डटा । दूत के कथन से अत्यन्त क्रुद्ध बने कृष्ण ने ससैन्य पद्मनाभ को आते हुए देखकर ऐसा सिंहनाद किया कि पद्मनाभ की कुछ सेना मैदान छोड़कर भाग छूटी। कुछ धनुष की टंकार सुनकर भाग गई । तब अवशिष्ट सैनिकों के साथ डरकर पद्मनाभ भी मैदान छोड़कर नगरी की ओर भाग छूटा | नगरी के चारों दरवाजे बन्द करवा दिये। कृष्ण भी क्रुद्ध होकर नृसिंह रूप धारण कर नगरी की ओर चल पड़े। पाँवों के आघात से पुरी के द्वार को गिराकर भीतर घुस गये । जब पद्मनाभ को यह मालूम पड़ा तो वह भय से व्याकुल हो गया और द्रौपदी पास जाकर प्राणों की भीख माँगने लगा। द्रौपदी ने कहा - 'यदि तुम्हें प्राण प्यारे हैं तो स्त्री वेष धारण कर मेरे पीछे वासुदेव की शरण में चलो। वे ही तुम्हें प्राणों की भीख दे सकते हैं।' पद्मनाभ ने वैसा ही किया, कृष्ण ने उसे क्षमा कर द्रौपदी पाण्डवों को सौंप दी तथा लोग जैसे आये थे वैसे चल पड़े। कृष्ण ने जाते समय शंखनाद किया ।
उस समय उस क्षेत्र का वासुदेव धातकीखण्ड की चंपापुरी में मुनिसुव्रत स्वामी भगवान के समवसरण में धर्मदेशना श्रवण कर रहा था । वासुदेव के शंख की ध्वनि सुनकर उसने तीर्थंकर को पूछा
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