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प्रवचन - सारोद्धार
आश्चर्य रूप है। तीर्थंकर परमात्मा की देशना सुनकर कोई न कोई आत्मा अवश्य व्रत ग्रहण करता है । पर केवलज्ञान होने के पश्चात् समागत संख्यातीत देवताओं के द्वारा विरचित समवसरण में भगवान महावीर के द्वारा अतिगंभीर मधुर व मनोहारी ध्वनि से धर्मदेशना देने पर भी किसी भी आत्मा ने व्रतग्रहण नहीं किया । केवल आचार का परिपालन करने हेतु ही परमात्मा की देशना हुई। ऐसा किसी भी तीर्थंकर के समय में नहीं हुआ, किन्तु महावीर के समय में हुआ अत: यह भी आश्चर्यरूप ही है ।
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५. कृष्ण का अमरकंका गमन-कृष्ण वासुदेव का अमरकंका नगरी में जाना अभूतपूर्व घटना होने से आश्चर्य रूप है । हस्तिनापुर नगर में पाँचों पाण्डव द्रौपदी के साथ क्रमशः विषयसुख भोगते हुए अत्यन्त आनन्दपूर्वक दिन बिता रहे थे। एक दिन स्वैरविहार करते हुए नारद द्रौपदी के महल में पधारे। द्रौपदी ने वेषभूषा के कारण उन्हें असंयत समझकर नमस्कार भी नहीं किया। द्रौपदी के रूखे व्यवहार से नारद अत्यन्त क्रुद्ध होकर द्रौपदी को दुःखी करने का उपाय सोचते हुए उसके महल से तुरन्त निकल गये । भरतक्षेत्र में तो कृष्ण के डर से उसके अपाय का कोई भी उपाय उन्हें दृष्टिगत नहीं हुआ अतः वे स्त्रीलंपट, कपिल वासुदेव के सेवक पद्मराजा की राजधानी अमरकंका नगरी में गये । वह राजा भी नारद जी को देखकर सविस्मय उठा व सत्कारपूर्वक उन्हें अपने अन्तःपुर में ले गया। वहाँ अपनी सभी पत्नियों को दिखाते हुए बोला- भगवन् ! आप सर्वत्र निराबाध भ्रमण करने वाले हैं। बताइये कि आपने मेरी पत्नियों जैसी स्वरूपवान स्त्रियाँ कहीं अन्यत्र देखी है क्या ? नारद ने भी अपनी मनोभावना पूर्ण होते देखकर पद्मराज को चढ़ाते हुए कहा- राजन् ! कूप- मण्डूक की तरह क्या इन रानियों को देखकर उछल रहे हो। पाण्डवों की पत्नी द्रौपदी के सम्मुख तुम्हारी ये रानियाँ दासीतुल्य हैं। इतना कहकर नारद जी आकाश मार्ग से उड़ चले ।
नारद जी के कथन से पद्मराज द्रौपदी को पाने हेतु अत्यन्त उत्कण्ठित हो गया । पर कहाँ जंबूद्वीप का भरत क्षेत्र और कहाँ धातकीखण्ड की अमरकंका। वहाँ से द्रौपदी को लाना उसकी शक्ति से परे की बात थी अत: उसने अपने मित्रदेव की आराधना की। आराधना से प्रसन्न हो देव प्रकट हुआ और बोला कि 'मित्र मुझे क्यों याद किया ?' पद्मराज ने कहा 'मित्र ! पाण्डव पत्नी द्रौपदी का अपहरण कर मुझे समर्पित करो ।' देव ने कहा 'द्रौपदी महासती है उससे तुम्हारी कामना पूर्ण नहीं हो सकती, तथापि वचनबद्ध होने से मैं उसे लाकर तुम्हें समर्पित करूँगा ।' देवता ने वैसा ही किया। रात को अपने महल में सोयी हुई द्रौपदी का अपहरण कर पद्मराज को समर्पित कर दी। जब द्रौपदी जगी अपने पति, महल आदि को न देखकर सहसा व्याकुल हो उठी। इतने में पद्मनाभ ने आकर उसे सान्त्वना देते हुए बड़े प्रेम से कहा - 'हे मृगाक्षि ! मैं धातकीखण्ड की अमरकंका का स्वामी, तुम्हारा चाहक पद्मनाभ हूँ । ही तुम्हें यहाँ लाया हूँ । तुम मेरे प्रेम को स्वीकार करो।' द्रौपदी परिस्थिति को भाँपते हुए बोली- 'हे पद्मनाभ ! छ: महिने के भीतर यदि मेरे पीछे कोई नहीं आया तो निश्चित रूप से मैं तुम्हारी मनोकामना पूर्ण करूंगी।' पद्मनाभ भी भरतक्षेत्र से किसी का अमरकंका में आगमन असंभव समझकर शान्त हो
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गया ।
इधर पाण्डवों ने द्रौपदी को महल न पाकर सर्वत्र खोज की। जब वह कहीं न मिली तो पाण्डवों ने कृष्ण को निवेदन किया । कृष्ण यह सुनकर बड़े गंभीर हो गये। इतने में नारद जी अपने
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