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प्रवचन-सारोद्धार
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कि–'भगवन् ! मेरा शंख किसने बजाया?' भगवान ने भी द्रौपदी का वृत्तान्त बताकर कृष्ण द्वारा शंखध्वनि करने की बात कही। कपिल ने अपने क्षेत्र में वासुदेव का स्वागत करने की भावना व्यक्त की। पर भगवान ने कहा कि–'कपिल ! जैसे एक स्थान पर दो तीर्थकर, दो चक्रवर्ती और दो वासुदेव एक साथ उत्पन्न नहीं हो सकते वैसे एक दूसरे से मिल भी नहीं सकते।' भगवान के ऐसा कहने पर भी कौतुकवश कपिल वासुदेव, कृष्ण को देखने की इच्छा से समुद्रतट पर गये। उन्होंने समुद्र में जाते हुए कृष्ण वासुदेव के रथ की ध्वजा देखी। तब उन्होंने शंख के माध्यम से कृष्ण को अपनी इच्छा बताई कि इस क्षेत्र का कपिल वासुदेव (मैं) आपका दर्शन करना चाहता है अत: आप पुन: लौट आइये। कृष्ण ने भी शंख बजाकर प्रत्युत्तर दिया कि आप अब आग्रह न करें, कारण हम तट से बहुत दूर निकल गये हैं और वे दोनों अपने-अपने स्थान को लौट आये। .
६. चन्द्र सूर्य का अवतरण—कोशांबी नगरी में भगवान महावीर पधारे । उस समय अन्तिम प्रहर में चन्द्र व सूर्य अपने मूल विमान से परमात्मा को वन्दन करने हेतु आये। सामान्यत: देवता उत्तर वैक्रिय द्वारा रचित विमान से ही धरती पर आते हैं अत: सूर्य, चन्द्र का मूल विमान से आगमन आश्चर्यरूप
हरिवंश कुलोत्पत्ति-हरिवंश कुल की उत्पत्ति भी आश्चर्यरूप है। हरि = पुरुष विशेष, वंश = पुत्र-पौत्रादि परंपरा । हरि नामक पुरुष विशेष के द्वारा प्रचलित पुत्र-पौत्रादि परम्परा। यथा-इस भरतक्षेत्र की कौशांबी नगरी में सुमुख नामक राजा था । वसन्त ऋतु आने पर वह राजा हाथी पर आरूढ़ होकर क्रीड़ा हेतु नगर के बाहर बगीचे में आया। रास्ते में उसने वीरक नामक जुलाहे की अति सुन्दर लावण्यमयी पत्नी वनमाला को देखा। उसने भी राजा को बार-बार रागदृष्टि से देखा। काम से व्याकुल राजा भी उसे निर्निमेष देखने की इच्छा से हाथी को इधर-उधर घमाता रहा पर आगे नहीं बढ़ा। तब सुमति नामक मंत्री ने आगे न बढ़ने का कारण पूछा। राजा ने तब अपने को संभाला और वहाँ से क्रीडोद्यान में गया पर हृदय-शून्य की तरह वहाँ उसका मन नहीं लगा। राजा को उद्विग्न देखकर सुमति मंत्री ने पूछा-देव ! आज आप उद्विग्न कैसे दिखाई दे रहे हैं। यदि कारण कहने योग्य हो तो अवश्य कहें। राजा ने कहा- मंत्रीश्वर ! आपसे गोपनीय कुछ भी नहीं है, क्योंकि आप ही मेरी उद्विग्नता को दूर करने में समर्थ हैं। ऐसा कह कर राजा ने मंत्री को अपनी उद्विग्नता का कारण बताया। मंत्री ने राजा को आश्वस्त किया कि वह शीघ्र ही उसकी इच्छा पूर्ण करेगा। राजा स्वस्थ होकर अपने महल में लौट आया।
तत्पश्चात् मंत्री ने अपने कार्य की सिद्धि के लिये ‘आत्रेयिका' नामक परिव्राजिका को वनमाला के पास भेजा। परिव्राजिका ने वहाँ जाकर विरह-व्याकुल वनमाला को कहा कि हे वत्से ! आज तुम उदास क्यों हो? अगर योग्य हो तो अपनी उदासी का कारण बताओ। तब वनमाला ने आहे भरते हुए अपनी दुष्पूरणीय इच्छा बताई। इस पर आत्रेयिका ने कहा-हे वत्से ! मेरी मंत्र-तंत्र की शक्ति के लिये कुछ भी असाध्य नहीं है। कल प्रात: ही मैं तुम्हारा राजा से मिलन करवा दूंगी। इस प्रकार वनमाला को आश्वस्त कर परिवाजिका ने मंत्री को निवेदित किया कि राजा का कार्य बन गया है। मंत्री ने यह
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