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________________ द्वार १३४-१३५ है। इस प्रकार बारह वर्ष पर्यंत संलेखना करने के बाद ही देहोत्सर्ग करने के लिये गिरि, गुफा आदि जीव-रहित स्थान में जाकर पादपोगमन, भक्त-परिज्ञा या इंगिनी-मरण आदि अनशन स्वीकार करे। (ii) मध्यम-१२ महीना तक तप करना। तप करने का क्रम उत्कृष्ट संलेखना की तरह ही समझना किंतु वर्ष के स्थान पर मास समझना । (iii) जघन्य-बारह पक्ष तक तप करना। तप का क्रम उत्कृष्ट संलेखना की तरह ही होता है, किंतु वर्ष के स्थान पर पक्ष समझना ॥८७५-८७७ ।। १३५ द्वार: वसति-ग्रहण नयराइएसु घेप्पइ वसही पुव्वामुहं ठविय बसहं । वामकडीइ निविटुं दीहीकअग्गिमेकपयं ॥८७८ ॥ सिंगक्खोडे कलहो ठाणं पुण नेव होइ चलणेसु। अहिठाणे पोट्टरोगो पुच्छंमि य फेडणं जाण ॥८७९ ॥ मुहमूलंमि य चारी सिरे य कउहे य पूयसक्कारो। खंधे पट्ठीय भरो पुटुंमि य धायओ वसहो ॥८८० ॥ -गाथार्थवृषभमुनियों द्वारा वसति ग्रहण-नगर या गाँव में वसतिग्रहण करते समय सम्पूर्ण वसति को आगे का एक पाँव लंबा करके तथा पूर्व दिशा सन्मुख मुँह करके डाबी करवट बैठे हुए बैल के आकार की कल्पना करे ।।८७८॥ __इस प्रकार वसति की वृषभरूप कल्पना करके जो स्थान शुभ हो वहाँ वास करे। सिंग के स्थान में वास करने से कलह, पाँव के स्थान में वास करने से वसति त्याग, गुदा स्थान में वास करने से पेट की बीमारी, पूँछ के स्थान में वास करने से वसति का नाश, मुख के स्थान में वास करने से श्रेष्ठ भोजन की प्राप्ति, शिर व ककुद के स्थान में वास करने से पूजा-सत्कार, स्कंध व पृष्ठ भाग में वास करने से वसति सदा भरी रहती है ।।८७९-८८० ॥ -विवेचन__ वसति ग्रहण करने से पहले उस वसति में पूर्व की ओर मुँह करके दायीं करवट बैठे हुए अग्रिम एक पाँव तिरछा फैलाये हुए बैल के आकार की कल्पना करना। तत्पश्चात् प्रशस्त प्रदेश में वसति ग्रहण करना। बैल के किस प्रदेश में ग्रहण की गई वसति प्रशस्त या अप्रशस्त कहलाती है? १. शृंग -शृंग के स्थान में वसति ग्रहण करे तो परस्पर साधुओं में कलह होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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