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________________ प्रवचन-सारोद्धार २. चरण ३. अपान ४. पूँछ ५. मुख ६. श्रृंग मध्य -चरण के स्थान में वसति ग्रहण करने से स्थिरता नहीं होती है अर्थात् शीघ्र विहार हो जाता है। - अपान के स्थान में वसति ग्रहण करने से उदर-रोग होता है। -पूंछ के स्थान में वसति ग्रहण करने से निष्कासित होना पड़ता है। -मुख के स्थान में वसति ग्रहण करने से गौचरी अच्छी मिलती है। -शृंग के मध्य भाग में वसति-ग्रहण करने से मान-सम्मान व पूजा-सत्कार मिलता है। पूजा-श्रेष्ठ वस्त्र, पात्र आदि मिलना। सत्कार = अभ्युत्थानादिरूप आहार मिलना। -ककुद के स्थान में वसति ग्रहण करने से पूजा = सत्कार मिलता है। -खभे या पीठ के स्थान में वसति ग्रहण करने से वसति में संकीर्णता होती है। अर्थात् बहुत साधुओं के आ जाने से वसति भर जाती है। -पेट के स्थान में वसति ग्रहण करने से मुनिजन सदा तृप्त रहते हैं ।।८७९-८८० ।। ७. ककुद ८. स्कन्ध-पृष्ठ ९. उदर १३६ द्वार: सचित्तता-कालमान उसिणोदगं तिदंडुक्कलियं फासुयजलंति जइकप्पं । नवरि गिलाणाइकए पहरतिगोवरिवि धरियव्वं ॥८८१ ॥ जायइ सचित्तया से गिम्हमि पहरपंचगस्सुवरिं। चउपहरोवरि सिसिरे वासासु पुणो तिपहरुवरिं ॥८८२ ॥ -गाथार्थपानी का काल-तीन उकालायुक्त गर्म जल अथवा अन्य प्रकार से प्रासुक किया हुआ जल सामान्यत: तीन प्रहर तक मुनियों को कल्पता है। ग्लानादि के लिये अधिक समय तक भी रखा जा सकता है ।।८८१ ॥ उष्णकाल में पाँच प्रहर के पश्चात्, शीतकाल में चार प्रहर के पश्चात् तथा वर्षाकाल में तीन प्रहर के पश्चात् प्रासुक जल भी पुन: सचित्त बन जाता है ।।८८२ ॥ -विवेचन• गर्म करने के पश्चात् या किसी अन्य प्रकार से अचित्त हो जाने के पश्चात् पुन: कितने समय उपरान्त सचित्त बनता है इसका निर्धारण करना । • उष्णजल-जिस जल में तीन बार उबाल आ गया हो वह उष्णजल है। प्रथम उबाल में पानी मिश्र रहता है। द्वितीय उबाल में अधिक भाग अचित्त हो जाता है पर कुछ भाग सचित्त रहता है। तीसरे उबाल में जल अचित्त हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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