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प्रवचन-सारोद्धार
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काल, भाव, संहनन, धैर्य, आदि को देखकर प्रायश्चित्त देना जीत व्यवहार है।
अथवा गच्छ में आचार्य ने किसी विशेष कारण से प्रेरित होकर कोई व्यवहार चलाया हो और बहुत से लोगों ने उसका अनुसरण किया हो तो वह भी जीत व्यवहार कहलाता है।
प्रायश्चित्त देने योग्य-उपरोक्त पाँच व्यवहार में से किसी एक व्यवहार से युक्त गीतार्थ ही प्रायश्चित्त देने का अधिकारी है। अगीतार्थ को प्रायश्चित्त देने का सर्वथा निषेध है क्योंकि इसमें अनेक दोषों की संभावना रहती है। कहा है कि
अगीतार्थ आत्मा व्यवस्थित प्रायश्चित्त नहीं दे सकता। न्यूनाधिक देता है। इससे प्रायश्चित्त देने वाले और लेने वाले दोनों ही संसार में डूबते हैं।
प्रश्न आगम व्यवहारी ज्ञानी होने से स्वयं आलोचक के दोषों को जानते हैं, अत: वे स्वयं अपराधी को प्रायश्चित्त देते हैं या अपराधी के द्वारा अपने दोष प्रगट करने पर प्रायश्चित्त देते हैं?
उत्तर-यद्यपि आगम व्यवहारी ज्ञान के बल से अपने शिष्य के दोषों को जानते हैं तथापि शिष्य के द्वारा अपने दोष प्रकट किये बिना उसे प्रायश्चित्त नहीं देते। यदि शिष्य अपने दोषों को छुपाता हो तो आगम-व्यवहारी उसे अन्य के पास भेज देते हैं।
यदि कोई निष्कपट आलोचक विस्मृति के कारण अपने दोषों को पूर्णतया नहीं बता पाया हो तो आगम व्यवहारी उसके विस्मृत दोषों को बताते हैं कि “भूले हुए इन दोषों की तुम आलोचना करो।" क्योंकि वे जानते हैं कि निष्कपट होने से यह दोषों को स्वीकार अवश्य करेगा। पर जो मायावी है, वह कहने पर भी दोषों को स्वीकार नहीं करता, उसे नहीं बताते ।
आलोचना देते समय यदि आलोचक अपने दोषों को अच्छी तरह से बतावे तो ही आगम-व्यवहारी उसे प्रायश्चित्त देते हैं। यदि आलोचक अपने दोषों का प्रत्यावर्तन अच्छी तरह से न करता हो तो आगम-व्यवहारी उसे प्रायश्चित्त नहीं देते, वे अमूढ़-लक्षी होते हैं।
प्रश्न–चौदह-पूर्वी आदि श्रुतज्ञानी होने से परोक्ष ज्ञानी हैं, वे प्रत्यक्ष-ज्ञानी कैसे हो सकते हैं?
उत्तर-यद्यपि चौदह-पूर्वी आदि परोक्ष ज्ञानी हैं, तथापि उनका ज्ञान प्रत्यक्ष तुल्य होने से जिसने जैसा दोष-सेवन किया है, उसे वे उसी तरह जानते हैं।
प्रश्न-आगम-व्यवहारी आलोचक के सभी दोषों को जानते हैं तो फिर उनके सम्मुख अलग-अलग दोषों को प्रकट करने की क्या आवश्यकता है? उनके सम्मुख आलोचक ऐसा ही कहे कि-भगवन् ! मेरे दोषों का प्रायश्चित्त दीजिये।
उत्तर-अपने मुँह से अपना अपराध स्वीकार करने में महान् लाभ है। इससे गुरु का प्रोत्साहन मिलता है कि 'वत्स ! तुम बड़े भाग्यशाली हो। तुमने अहं का विसर्जन करके आत्म-हित की भावना से अपने दोषों को प्रकट किया है। यह अति कठिन कार्य है।' इस प्रकार गरु के प्रोत्साहन की भाव वृद्धि होती है और वह गुरु के प्रति श्रद्धावान् बनकर यत्किचित् भी शल्य रखे बिना आलोचना लेता है तथा प्रदत्त आलोचना अच्छी तरह से पूर्ण कर अल्प काल में ही मोक्ष का वरण कर लेता है।
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