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द्वार १२६-१२७
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श्रुत-व्यवहारी द्वारा प्रायश्चित्त देने की विधि—श्रुतव्यवहारी सर्वप्रथम आलोचक से तीन बार उसके अपराध सुने, पश्चात् आलोचना दे, क्योंकि एक-दो बार सुनने से वास्तविकता का पूरा पता नहीं लगता। पहली बार आलोचक का अपराध निद्रित की तरह सुने, फिर उसे कहे कि नींद के कारण मैंने तुम्हारे अपराध बराबर नहीं सुने । तब आलोचक दूसरी बार अपने अपराध सुनाये फिर भी आलोचनादाता कहे कि उपयोगशून्य होने से मैंने आपके अपराध नहीं सुने । तब आलोचक तीसरी बार सुनाये। यदि तीनों ही बार के कथन में समानता हो तो आलोचक उसे निष्कपट जानकर प्रायश्चित्त दे। यदि तीनों बार के कथन में समानता न हो तो उसे मायावी जानकर प्रायश्चित्त न दे, पर मौन रहे। यदि आलोचक समझ जाये कि मेरी माया गुरु ने समझ ली है और निष्कपट भाव से आलोचना देना चाहे तो उसे सर्वप्रथम कपट की आलोचना दे, बाद में अपराध की ॥८५४-८५९ ॥
|१२७ द्वार :
यथाजात
पंच अहाजायाइं चोलगपट्टो तहेव रयहरणं । उन्निय खोमिय निस्सेज्जजुयलयं तह य मुहपोत्ती ॥८६० ॥
-गाथार्थयथाजात पाँच–१. चोलपट्टा, २. रजोहरण, ३. ऊनी निषद्या, ४. सूती निषद्या तथा ५. मुहपत्ति-ये पाँच यथाजात हैं ।।८६०॥
-विवेचनयथाजात = जैसे जन्म हुआ था। यहाँ जन्म से अर्थ है साधु रूप जन्म अर्थात् जिस रूप में साधु बने थे वह स्वरूप 'यथाजात' कहलाता है। चोलपट्टा, रजोहरण, ऊनी व सूती निषद्या तथा मुहपत्ति इन पाँच उपकरणों सहित साधु जीवन ग्रहण किया जाता है अत: यह स्वरूप साधु रूप में जन्म लेने की अपेक्षा से 'यथाजात' कहलाता है तथा उपचार से चोलपट्टा आदि पूर्वोक्त पाँचों उपकरण भी यथाजात कहलाते हैं।
१. चोलपट्ट-इसका स्वरूप व प्रयोजन ६१वें द्वार में देखें।
२. रजोहरण बाह्य व आभ्यन्तर निषद्या से रहित, मात्र एक निषद्या वाला रजोहरण जो वर्तमान काल में फलियों सहित दण्डी पर बाँधा जाता है। वर्तमान में दण्डी के साथ जो फलियाँ बाँधी जाती हैं, वे आगमानुसार नहीं हैं। सूत्र के अनुसार तो दण्डी और फलियाँ दोनों ही अलग-अलग होनी चाहिये।
• दण्डी तीन निषद्या से युक्त होती है।।
२. प्रथमनिषद्या-दण्डी पर तीन बार लपेटा जा सके, इतना चौड़ा व एक हाथ लंबा कंबल का टुकड़ा पहली निषद्या है। यही निषद्या आठ अंगुल प्रमाण फलियों से युक्त ‘रजोहरण' कहलाती है। कहा है कि-'एगनिसेज्जं रजहरणं' अर्थात् एकनिषद्या से युक्त रजोहरण है।
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