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________________ द्वार १२६ 1-000425405000005.008 Contact 330520852965802८००००००००० ० ००-5- 30- 31525346 :08235348005550 व्यवहार है। अथवा जिस गच्छ में जिन दोषों के लिये परंपरा से जो प्रायश्चित्त दिया जाता हो वह जीत व्यवहार है ।।८५९ ।। -विवेचन१. जीवादि की प्रवृत्ति व्यवहार है अथवा मोक्षाभिलाषी जीवों की प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप क्रिया व्यवहार है। ऐसे व्यवहार का कारणभूत ज्ञानविशेष भी उपचार से व्यवहार कहलाता है। व्यवहार के पाँच भेद १. आगमव्यवहार-आगम = पदार्थों का बोध कराने वाला ज्ञान । व्यवहार = प्रवृत्ति व निवृत्ति अर्थात् जीवादि पदार्थों के बोधक ज्ञान के अनुसार प्रवृत्ति व निवृत्ति आगम-व्यवहार है । केवलज्ञानी, मन:पर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चौदहपूर्वी, दसपूर्वी और नौपूर्वी आगम व्यवहारी हैं।। __२. श्रुतव्यवहार-निशीथ, कल्प, व्यवहार, दशाश्रुतस्कन्ध आदि, ग्यारह अंग, चौदह-पूर्व, दसपूर्व और नौ पूर्व द्वारा होने वाला व्यवहार । ___ यदि केवलज्ञानी उपलब्ध हो तो सर्वप्रथम केवली को ही आलोचना देना चाहिये । केवली के अभाव में मन:पर्यवज्ञानी को आलोचना देना चाहिये। इनके अभाव में अवधिज्ञानी को। इस प्रकार क्रमश: चौदह-पूर्वी, दस-पूर्वी तथा नव-पूर्वी को देना चाहिये। प्रश्न–चौदह-पूर्व, दस-पूर्व और नौ-पूर्व श्रुत के अन्तर्गत होने से इसके द्वारा होने वाला व्यवहार श्रुत व्यवहार ही होना चाहिये, इन्हें आगम व्यवहार में सम्मिलित क्यों किया? उत्तर—यद्यपि चौदह-पूर्व, दस-पूर्व और नौ-पूर्व श्रुतरूप हैं, तथापि वे अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान करने में सक्षम होने से केवलज्ञानादि की तरह आगम व्यवहार के अन्तर्गत आते हैं। ३. आज्ञा व्यवहार—जिनका जंघाबल क्षीण हो चुका है और जो एक दूसरे से दूर हैं, ऐसे गीतार्थों को जब आलोचना करनी होती है तो वे अपने गीतार्थ शिष्य को दूरस्थित गीतार्थ के पास भेजते हैं। गीतार्थ शिष्य न हो तो तीव्र धारणा-शक्ति वाले शिष्य को आगम की सांकेतिक भाषा में अतिचार बताकर आचार्य के पास भेजते हैं। आलोचना-दाता आचार्य यदि जाने में समर्थ हो तो स्वयं वहाँ जाकर उन्हें प्रायश्चित्त देते हैं या अपने गीतार्थ शिष्य को भेजकर उन्हें प्रायश्चित्त कराते हैं या जो मुनि आया है उसी के साथ सांकेतिक भाषा में प्रायश्चित्त भेजते हैं। ४. धारणा व्यवहार—“गीतार्थ आचार्य ने तथाविध अपराध में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पुरुष व प्रतिसेवना को ध्यान में रखते हुए एवंविध प्रायश्चित्त दिया था” उसे याद रखते हुए शिष्य द्वारा तथाविध अपराध में तथा प्रकार का प्रायश्चित्त देना धारणा व्यवहार है अथवा सामान्य योग्यता वाले किन्तु वैयावच्च आदि के द्वारा गच्छ के उपकारी शिष्य को कृपा कर गुरु द्वारा प्रायश्चित्त सम्बन्धी विशेष बातें आगम से उद्धत कर बताना तथा शिष्य द्वारा उन पदों को उसी प्रकार याद रखना धारणा व्यवहार है। ५. जीत व्यवहार-पूर्व महर्षियों के द्वारा जिन अपराधों की शुद्धि जिन महान तपों के द्वारा की गई थी उन अपराधों में वैसे तप करने की शक्ति के अभाव में गीतार्थ महापुरुष के द्वारा द्रव्य, क्षेत्र, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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