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________________ प्रवचन-सारोद्धार |१२६ द्वार: ५ व्यवहार आगम सुय आणा धारणा य जीए य पंच ववहारा । केवल मणो हि चउदस दस नवपुवाइ पढमोऽत्थ ॥८५४ ॥ कहेहि सव्वं जो वुत्तो, जाणमाणोऽवि गृहइ । न तस्स दिति पच्छित्तं, बिंति अन्नत्थ सोहय ॥८५५ ॥ न संभरे य जे दोसे, सब्भावा न य मायओ। पच्चक्खी साहए ते उ, माइणो उ न साहए ॥८५६ ॥ आयारपकप्पाई सेसं सव्वं सुयं विणिद्दिटुं । देसंतरट्ठियाणं गूढपयालोयणा आणा ॥८५७॥ गीयत्थेणं दिन्नं सुद्धिं अवहारिऊण तह चेव। दिंतस्स धारणा तह उद्धियपयधरणरूवा वा ॥८५८ ॥ दव्वाइ चिंतिऊणं संघयणाईण हाणिमासज्ज। पायच्छित्तं जीयं रुढं वा जं जहिं गच्छे ॥८५९ ॥ ___ -गाथार्थपाँच व्यवहार-१. आगम व्यवहार, २. श्रुत व्यवहार, ३. आज्ञा व्यवहार, ४. धारणा व्यवहार तथा ५. जीत व्यवहार ये पाँच व्यवहार हैं। केवलज्ञानी, मन:पर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चौदहपूर्वी, दशपूर्वी तथा नवपूर्वी आगम व्यवहारी होते हैं ॥८५४ ।। "सभी पापों की आलोचना हो' ऐसा गुरुद्वारा कहने पर भी जो पापों को छुपाता है आगमव्यवहारी गुरु उसको प्रायश्चित्त नहीं देते। 'किसी अन्य से लेना' ऐसा कहते हैं। जिसमें कोई माया नहीं है पर स्वभावत: ही दोषों की स्मृति नहीं हो रही है ऐसे आत्मा को प्रत्यक्षज्ञानी गुरु दोषों का स्मरण करवाते हैं, पर मायावी को नहीं करवाते ॥८५५-८५६ ।।। __ आचारप्रकल्प आदि शेष समस्त श्रुत द्वारा होने वाला व्यवहार श्रुत व्यवहार है। अन्यत्र विराजमान गीतार्थ के पास गूढ़ पदों द्वारा आलोचना करना आज्ञा व्यवहार है ।।८५७ ।।। गीतार्थों के द्वारा दी गई आलोचना को यथावत् याद रखकर तथाविध दोष में तथाविध प्रायश्चित्त देना धारणा व्यवहार है। अथवा गुरु द्वारा शास्त्र से उद्भूत पदों को याद रखकर तदनुसार प्रायश्चित्त देना धारणा व्यवहार है।।८५८ ॥ संघयण आदि की हानि को देखते हुए द्रव्यादि के विचारपूर्वक प्रायश्चित्त देना वह जीत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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